(३१ दिसम्बरके ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञानी भक्त
नाम
जीहँ जपि जागहिं जोगी ।
बिरति
बिरंचि प्रपंच बियोगी ॥
ब्रह्मसुखहि
अनुभवहिं अनूपा ।
अकथ
अनामय नाम न रूपा ॥
(मानस, बालकाण्ड,
दोहा २२ । १-२)
ब्रह्माजीके बनाये हुए इस प्रपंच (दृश्य जगत्) से भलीभाँति छूटे
हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नामको ही जीभसे जपते हुए (तत्त्वज्ञानरूपी दिनमें)
जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुखका अनुभव करते हैं ।
संसारमें जितने जीव हैं,
वे सब नींदमें पड़े हुए हैं । जैसे नींद आ जाती है तो बाहरका
कुछ ज्ञान नहीं रहता, इसी तरह परमात्माकी तरफसे जीव प्रायः सोये हुए रहते हैं । परमात्मा
क्या हैं, क्या नहीं हैं‒इस बातका उनको ज्ञान नहीं है । इसका जो कोई ज्ञान
करना चाहते हैं और अपने स्वरूपका बोध भी करना चाहते हैं,
वे योगी होते हैं । मानो उनका संसारसे वियोग होता है और परमात्माके
साथ योग होता है । वे जीभसे नाम-जप करके जाग जाते हैं । उनको सब दीख जाता है ।
या निशा
सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां
जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
(गीता २ । ६९)
मानो साधारण मनुष्य परमात्मतत्त्वकी तरफसे बिलकुल सोये हैं ।
जैसे अँधेरी रातमें दीखता नहीं, ऐसे उनको भी कुछ नहीं दीखता,
पर संयमी पुरुष उसमें जागते हैं । जिसमें सभी प्राणी जाग रहे
हैं, मेरा-तेरा कहकर बड़े सावधान होकर संसारका काम करते हैं,
संसारके तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें वह रात है । ये
लोग अपनी दृष्टिसे इसे जागना भले ही मानें,
परंतु बिलकुल सोये हुए हैं,
उनको कुछ होश नहीं है । वे समझते हैं कि हम तो बड़े चालाक,
चतुर और समझदार हैं । यह तो पशुओंमें भी है,
पक्षियोंमें भी है,
वृक्षोंमें भी है, लताओंमें भी है और जन्तुओंमें भी है । खाना-पीना,
लड़ाई-झगड़ा, मेरा-तेरा आदि संसारभरमें है । इसमें जागना मनुष्यपना नहीं है
। मनुष्यपन तो तभी है, जब परमात्म-स्वरूपको जान लें अर्थात् उसमें जाग जायँ । उसे कैसे
जानें ? उसका उपाय क्या है ? परमात्माके नामको जीभसे जपना शुरू कर दें
और परमात्माको चाहनेकी लगन हो जाय तो वे जाग जाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें
नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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