(गत ब्लॉगसे आगेका)
नाम-जपसे सब कुछ मिलता है । हृदयसे जो चाहना होगी,
वह चीज उसको मिल जायगी । जैसे कल्पवृक्षके
नीचे बैठकर मनुष्य जो कामना करता है, वह
कामना पूरी होती है, ऐसे ही यदि हृदयमें नाम-जपकी सच्ची लगन होगी तो नाम
महाराज उसी तत्त्वको जना देंगे । इसलिये वह जाग जायगा । जागनेसे क्या होगा
? जो अनुपम ब्रह्मसुख है, उसका वह अनुभव कर लेगा । ब्रह्मसुख कैसा होता है ?
उसकी कोई उपमा नहीं है । भोजन करनेसे जैसे तृप्ति होती है,
ऐसा वह सुख नहीं है । सम्पत्ति,
वैभव मिलनेसे एक खुशी आती है, इसकी उस सुखसे तुलना नहीं कर सकते
। ब्रह्मसुखमें कभी भी किंचिन्मात्र कमी नहीं आ सकती । दुःख नजदीक नहीं आ सकता । नाम
जपनेवाले उस सुखका अनुभव कर लेते हैं ।
‘अकथ
अनामय नाम न रूपा’‒अभी पहले कहा
था कि नाम और रूप अकथनीय हैं । अब कहते हैं वह जो निर्गुण ब्रह्मसुख है,
वह भी अकथनीय है । निर्गुण और सगुण दोनों अकथनीय हैं और इनके
नामकी महिमा भी कथनमें नहीं आ सकती । तात्पर्य क्या निकला ?
लौकिक इन्द्रियाँ, मन,
बुद्धि आदि तो सांसारिक पदार्थोंका वर्णन और दर्शन कराते हैं,
परंतु परमात्माकी तरफ चलनेमें ये सब कुण्ठित हो जाते हैं;
क्योंकि परमात्मा इनका विषय नहीं है । परमात्मतत्त्व प्रकृतिसे
भी अतीत है । प्रकृतिका वर्णन दार्शनिक लोगोंने किया है;
परंतु प्रकृतिका वर्णन भी पूरा नहीं हो सकता । जो साधन हमें
प्राप्त हैं, उनमें सबसे बढ़िया बुद्धि है,
वह बुद्धि भी प्रकृतितक नहीं पहुँच पाती । प्रकृतिके कार्यों
(शरीर, मन, इन्द्रियाँ) में बुद्धि काम करती है,
पर कारणमें अर्थात् प्रकृतिमें काम नहीं करती । जैसे,
मिट्टीसे बना हुआ घड़ा है,
वह कितना ही बड़ा बना हो,
सम्पूर्ण पृथ्वीको अपने भीतर समा लेगा क्या ? क्या घड़ेमें पूरी
पृथ्वी भरी जायगी ? नहीं भरी जा सकती । ऐसे प्रकृतिके कार्य‒मन,
बुद्धि आदि प्रकृतिको ही अपने कब्जेमें नहीं ला सकते,
फिर प्रकृतिसे अतीत परमात्मातक कैसे पहुँच सकते हैं ?
परमात्मा अनामय है अर्थात् विकार रहित है । उसमें विकार सम्भव
नहीं है । उसका न नाम है, न रूप है । उसका स्वरूप देखा जाय तो काला,
पीला या सफेद‒ऐसा नहीं है । उसको जाननेके लिये उसका नाम रखकर
सम्बोधित करते हैं; क्योंकि हमलोग नाम-रूपमें बैठे हैं,
इसलिये उसको ब्रह्म कहते हैं । संतोंने उसके विषयमें कहा है‒
न को रस भोगी
। न को रहत न्यारा ।
न को आप हरता । न को कर्तु व्यवहारा ॥ १ ॥
ज्यु देख्या त्यु मैं कह्या । काण न राखी काय ।
हरिया परचा नामका । तन मन भीतर थाय ॥
वहाँ तुरीय पद भी नहीं है,
वहाँ मोक्ष, मुक्ति भी नहीं है, बन्धन भी नहीं है । ऐसा अलौकिक तत्त्व है
! तुलसीदासजी महाराज कहते हैं कि जीभसे नाम-जप करके उस ब्रह्मसुखका स्वयं अपने-आपमें
जहाँ नाम पहुँचता ही नहीं, वहाँ अनुभव कर लेते हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
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