(गत ब्लॉगसे आगेका)
तस्मात्केनाप्युपायेन मनः कृष्णे निवेशयेत् ।
भगवान्के भजनमें लगनेवालेका किसी रीतिसे भगवान्के साथ सम्बन्ध
हो जायगा तो वह कल्याण करनेवाला ही होगा ।
चहू चतुर कहुँ नाम
अधारा ।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा ॥
(मानस, बालकाण्ड,
दोहा २२ । ७)
चारों प्रकारके भक्तोंके नामका ही आधार होता है । चतुर वही कहलाता
है, जो बहुत-सी चीजोंमेंसे सार-सार चीज ले लेता है । उनके खोज रहती है कि सबमें सार
चीज क्या है ? हम किसका आश्रय लें,
जिससे हमारा दुःख भी दूर हो जाय,
धन भी हमें मिल जाय और हमारी जिज्ञासा भी पूरी हो जाय । ज्ञानीके
किसी तरहकी कामना नहीं रहती, वह निष्काम होता है । इसलिये भगवान्को वह (ज्ञानी) विशेष प्यारा
होता है । नाम ऐसा विलक्षण है कि चाहे आर्त हो, चाहे
अर्थार्थी हो, चाहे जिज्ञासु हो, उसकी
कामनापूर्ति कर देता है और केवल कामनापूर्ति ही नहीं, वह
भगवान्की प्राप्ति भी करा देता है । ज्ञानी भक्तोंके लिये ऐसा आया है‒
आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥
आत्माराम मुनि अपने स्वरूपमें नित्य-निरन्तर मस्त रहते हैं ।
उनमें किसी तरहकी किंचिन्मात्र भी इच्छा नहीं रहती । अपने स्वरूपमें स्थित रहना और
परमात्माको प्राप्त करना‒इसमें थोड़ा-सा फर्क है । अपने स्वरूपमें
स्थिर होनेपर भी कल्याण हो जाता है, इसमें
सन्देह नहीं है, परंतु परमात्मस्वरूपको जाननेसे एक विलक्षण प्रेम प्रकट होता है । वह प्रेम सगुण और निर्गुण दोनोंमें आता है । परमात्म-तत्त्वकी
भूखके बिना प्रेम प्रकट नहीं होता । ऐसे तो जिज्ञासुमें,
अर्थार्थीमें और आर्तमें भी प्रेम रहता है,
परंतु विशेष शुद्ध प्रेम तो परमात्माके सम्मुख होनेसे ही होता
है ।
आत्माराम पुरुष किसी कामनाको लेकर भगवान्की भक्ति नहीं करते
हैं, पर दूसरे भक्त कामनासे ही भक्ति करते हैं । जैसे आर्त भक्त दुःख दूर करनेके लिये
भजन करते हैं और अर्थार्थी भक्त धनके लिये और अणिमा आदि सिद्धियोंके लिये भजन करते
हैं और जिज्ञासु परमात्मतत्त्वको जाननेके लिये भजन करते हैं । ‘इत्थम्भूतगुणो
हरिः’ भगवान् ही ऐसे विलक्षण गुणवाले हैं । जिन पुरुषोंकी किंचिन्मात्र कामना स्वप्नमें
भी नहीं है, उनका चित्त भगवान्में आकृष्ट हो जाता है । उनकी भक्ति अहैतुकी
होती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मानसमें नाम-वन्दना’ पुस्तकसे
|