।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७२, मंगलवार
अभेद और अभिन्नता



(गत ब्लॉगसे आगेका)

वेदान्तमें ऐसी मान्यता है कि अभेदके बाद कुछ भी बाकी नहीं रहता । अगर अभेदके बाद ईश्वरसे अभिन्नता मानें तो वेदान्तके अद्वैत सिद्धान्तमें कमी आती है । अपने सिद्धान्तमें कमी न आ जाय, इसलिये वेदान्तियोंने ईश्वरको कल्पित बता दिया; क्योंकि कल्पित बतानेके सिवाय और कोई उपाय नहीं । परन्तु ईश्वर किसकी कल्पना है‒इसका उत्तर उनके पास नहीं है । वे द्वैतसे डरते हैं कि कहीं अपनेमें द्वैत न आ जाय । वास्तवमें सत्ता एक ही (अद्वैत) है; परन्तु अपने रागके कारण दूसरी सत्ता (द्वैत) दीखती है । दूसरी सत्ताका तात्पर्य संसारसे है, ईश्वरसे नहीं; क्योंकि संसार पर’ है और ईश्वर स्व’ (स्वकीय) है । दूसरी सत्ताका निषेध करनेके लिये वेदान्तने ईश्वरको भी कल्पित मान लिया । राग तो अपना है, पर मान लिया ईश्वरको कल्पित ! अपना राग मिटाये बिना दूसरी सत्ता कैसे मिटेगी ? इसलिये ईश्वरको कल्पित न मानकर अपना राग मिटाना चाहिये । ईश्वर कल्पित नहीं है, प्रत्युत अलौकिक है[1]

जीव सब एक हो जायँ तो (जीवभाव मिटनेपर) ब्रह्म’ होता है । जो ऐश्वर्यसे युक्त है और सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति, प्रलय आदिको जानता है, वह भगवान्’ है । ये बातें जीवमें नहीं होतीं । इसलिये सब जीव एक होनेपर उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय नहीं होता‒जगद्‌‌व्यापारवर्जम्’ (ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७) । कारण कि जीव ब्रह्मके साथ एक हो सकता है, भगवान्‌के साथ नहीं । भगवान्‌के साथ उसका अभेद नहीं हो सकता, पर अभिन्नता हो सकती है । श्रीएकनाथजी महाराजने भागवत, एकादश स्कन्धकी टीकामें इसी अभिन्नताको अभेदभक्ति कहा है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे

[1] द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
  क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्चते ॥
  उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
  यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
                                       (गीता १५ । १६-१७)

‘इस संसारमें क्षर (नाशवान्) और अक्षर अविनाशी)‒ये दो प्रकारके ही पुरुष हैं । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीर क्षर और जीवात्मा अक्षर कहा जाता है ।’

‘उत्तम पुरुष तो अन्य (विलक्षण) ही है, जो ‘परमात्मा’इस नामसे कहा गया है । वही अविनाशी ईश्वर तीनों लोकोंमें प्रविष्ट होकर सबका भरण-पोषण करता है ।’