।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ पूर्णिमा, वि.सं.२०७२, मंगलवार
मानवशरीरका सदुपयोग



(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रेमी भक्तके विषयमें आया है‒

वाग् गद्‌गदा द्रवते यस्य चित्तं-
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्वचिच्च ।
विलज्ज उद्गायति नृत्यते च
मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
     (श्रीमद्भा ११ । १४ । २४)

जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करती-करती गद्‌गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण, प्रभाव और लीलाओंको याद करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बार-बार रोता रहता है, कभी-कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है, तो कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसारको पवित्र कर देता है ।’

यः सेवते मामगुणं गुणात्परं-
हृदा कदा वा यदि वा गुणात्मकम् ।
सोऽहं स्वपादाञ्चितरेणुभिः स्पृशन्
पुनाति लोकत्रितयं यथा रविः ॥
                                    (अध्यात्म उत्तर ५ । ६१)

‘चाहे मेरे निर्गुण स्वरूपका चित्तसे उपासना करनेवाला हो अथवा मायिक गुणोंसे अतीत मेरे सगुण स्वरूपकी सेवा-अर्चना करनेवाला हो, वह भक्त मेरा ही स्वरूप है । वह सूर्यकी भाँति विचरण करता हुआ अपनी चरण-रजके स्पर्शसे तीनों लोकोंको पवित्र कर देता है ।’

तात्पर्य है कि चाहे भक्त हो या ज्ञानी, उसके चरणोंके स्पर्शसे पृथ्वी पवित्र हो जाती है । जैसे सूर्य जहाँ जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, ऐसे ही वह महात्मा जहाँ जाता है, वहाँ ज्ञानका प्रकाश हो जाता है, आनन्द हो जाता है । कारण कि उसके भीतर राग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि बिलकुल नहीं होते । इसलिये हमारी यही चेष्टा होनी चाहिये कि राग-द्वेष, काम-क्रोध आदिसे पिण्ड छूट जाय । हमारे हदयमें राग-द्वेषादि विकार न रहें । जबतक ये कम न हों, तबतक समझे कि असली सत्संग मिला नहीं है । जबतक मनुष्यमें गुण-अवगुण दोनों रहते हैं, तबतक वह साधक नहीं होता । साधक तभी होता है, जब अवगुण मिट जाते हैं । दूसरा उसके साथ वैर करे तो भी उसके हदयमें वैर नहीं होता, उलटे हँसी आती है, प्रसन्नता होती है । वह अनिष्ट-से-अनिष्ट चाहनेवालेका भी बुरा नहीं चाहता । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों मार्गोंमें राग-द्वेष मिट जाते हैं । अतः साधकको देखते रहना चाहिये कि मेरे राग-द्वेष कम हो रहे हैं या नहीं । अगर कम हो रहे हैं तो समझे कि साधन ठीक चल रहा है ।

साधकमें तीन बातें रहनी चाहिये । वह किसीको बुरा मत समझे, किसीका बुरा मत चाहे और किसीका बुरा मत करे । इन तीन बातोंका वह नियम ले ले तो उसका साधन बहुत तेज और बढ़िया होगा । इन तीन बातोंको धारण करनेसे वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनोंका अधिकारी बन जाता है । इसलिये मेरी साधकोंसे प्रार्थना है कि वे कम-से-कम इन तीन बातोंको धारण कर लें । वे सबकी सेवा करें, सबको सुख पहुँचायें । सुख भी न पहुँचा सकें तो कम-से-कम किसीको दुःख मत पहुँचायें । जो दूसरोंको दुःख पहुँचाता है, वह साधन नहीं कर सकता ।

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम  नहिं  अधमाई ॥
                              (मानस, उत्तर ४१ । १)

मनुष्यशरीर साधन करनेके लिये मिला है । यह साधनयोनि है । इसलिये सच्चे साधक बनो । सच्चे सत्संगी बनो । योगारूढ़ हो जाओ । जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ हो जाओ । भगवान्‌के प्रेमी हो जाओ । यह मौका मनुष्यजन्ममें ही है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

       ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे