(गत ब्लॉगसे आगेका)
पाँचवाँ अध्याय
मनुष्यको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर सुखी-दुःखी, राजी-नाराज नहीं होना चाहिये;
क्योंकि इन सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंमें फँसा हुआ
मनुष्य संसारसे ऊँचा नहीं उठ सकता ।
स्त्री, पुत्र,
परिवार, धन-सम्पत्तिका केवल स्वरूपसे त्याग करनेवाला
संन्यासी नहीं है, प्रत्युत जो अपने कर्तव्यका पालन करते हुए
राग-द्वेष नहीं करता, वही सच्चा संन्यासी
है । जो अनुकूल परिस्थितिके आनेपर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर
उद्विग्न नहीं होता, ऐसा वह द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्य परमात्मामें
ही स्थित रहता है । सांसारिक सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि द्वन्द्व दुःखोंके ही कारण हैं
। अतः बुद्धिमान् मनुष्यको उनमें नहीं फँसना चाहिये ।
छठा अध्याय
किसी भी साधनसे अन्तःकरणमें समता आनी चाहिये; क्योंकि समताके बिना मनुष्य अनुकूल-प्रतिकूल
परिस्थितियोंमें, मान-अपमानमें सम
(निर्विकार) नहीं रह सकता और अगर वह परमात्माका
ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता । तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें समता आये बिना सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंका असर नहीं मिटेगा और मन भी
ध्यानमें नहीं लगेगा ।
जो मनुष्य प्रारब्धके अनुसार प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, वर्तमानमें किये
जानेवाले कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें, सिद्धि-असिद्धिमें, दूसरोंके द्वारा किये गये मान-अपमानमें, धन-सम्पत्ति आदिमें,
अच्छे-बुरे मनुष्योंमें सम रहता है, वह श्रेष्ठ है । जो साध्यरूप समताका उद्देश्य रखकर मन-इन्द्रियोंके संयमपूर्वक परमात्माका ध्यान करता है, उसकी
सम्पूर्ण प्राणियोंमें और उनके सुख-दुःखमें समबुद्धि हो जाती
है । समता प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण
कर जाता है । समतावाला मनुष्य सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी मनुष्योंसे श्रेष्ठ है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे |