Dec
31
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं (गुरु- र्ब्रह्मा
गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः)‒ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है ?
उत्तर‒तात्पर्य यह है कि शिष्यका गुरुमें
मनुष्यभाव न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरका भाव होना चाहिये । जैसे, पतिव्रता स्त्रीका पतिमें ईश्वरभाव होता है तो उसका पति सबके लिये ईश्वर थोड़े
ही हो जाता है ! ऐसे ही शिष्यका अपने गुरुमें ब्रह्मा-विष्णु-महेशका भाव होता है तो वह गुरु सबके लिये ब्रह्मा-विष्णु-महेश थोड़े ही हो जायगा ! यह तो शिष्यका अपना भाव है । ऐसा भाव होनेपर शिष्यको उस गुरुसे विशेष लाभ होता
है; परन्तु यह भाव भीतरसे होना चाहिये, बनावटी नहीं ।
प्रश्न‒गुरु और शिष्यका एक-दूसरेके प्रति क्या कर्तव्य है ?
उत्तर‒गुरुका यही प्रयत्न रहे, यही चिन्ता रहे कि
शिष्यका उद्धार कैसे हो ! शिष्यका यही भाव रहे कि मेरे द्वारा
गुरुकी सेवा बन जाय; मेरी सामर्थ्य रहते हुए उनको किसी प्रकारका
कष्ट न हो; मेरे पास जो कुछ है, वह सब उनकी
सेवाके लिये ही है; उनके वचनों, भावोंके
अनुसार मेरा जीवन बन जाय, फिर मेरे जीवनका वे चाहे जो उपयोग करें
।
को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा ।
शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त
एव ॥
(प्रश्नोत्तरी
७)
प्रश्न‒पहले गुरु बनाकर दीक्षा ले ली, मन्त्र ले लिया, पर अब उस गुरुपर श्रद्धा
नहीं रही तो ऐसी अवस्थामें क्या करना चाहिये ?
उत्तर‒जैसे, मकानकी छत फट जाय और
उसपर ऊपरसे थोड़ी मिट्टी लगा दें तो वह कितने दिन टिकेगी ? वर्षा
आयेगी तो वह छत गिर जायगी । ऐसे ही जिस गुरुके प्रति हृदयमें सद्भाव नहीं रहा,
उसमें दोष दीखने लग गये, उसपर बनावटी श्रद्धा करें
तो वह कितने दिन टिकेगी ? जबर्दस्ती किया गया गुरुभाव कहाँतक
रहेगा ! कारण कि उस गुरुके विरुद्ध और कोई बात सुननेमें आ जायगी
तो गुरुभाव टिकेगा नहीं । अतः अधिक-से-अधिक
वह घरपर आ जाय तो उसका आदर करो, भोजन करा दो, चद्दर दे दो, पर उसकी निन्दा मत करो । उसको भीतरसे गुरु
मत मानो । जहाँ आपकी श्रद्धा बैठती हो, उसका संग करो और उसके
कहे अनुसार अपना जीवन बनाओ । उसके कहे अनुसार अपना जीवन बनानेसे ही कल्याण होगा । यदि
वैसा जीवन नहीं बनाओगे तो उस गुरुपर भी दोषदृष्टि हो जायगी ! फिर आप कहीं भी टिकोगे नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सच्चा गुरु कौन ?’ पुस्तकसे
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