(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे हम मकानमें बैठे हुए भी मकानमें नहीं हैं, चट छोड़कर चल
देते हैं, ऐसे ही शरीरमें रहते हुए भी हम शरीरमें नहीं हैं, हम
कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । इस बातको केवल मानना है, स्वीकार
करना है । इसके लिये पढ़ाईकी
जरूरत नहीं है । इसको सभी भाई-बहन स्वीकार कर सकते हैं कि हम भगवान्के अंश हैं,
हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । प्रकृतिका विभाग अलग है और चेतनका
विभाग अलग है । कर्तापन-भोक्तापन प्रकृति-विभागमें है और ‘न
करोति न लिप्यते’ चेतन-विभागमें है । पहलेके अभ्यासके कारण भले ही अभी इसका अनुभव
न हो, पर वास्तवमें बात ऐसी ही है । हम बिलकुल
निर्लेप हैं । मुक्ति होती नहीं है, मुक्ति
है । केवल अनुभव करना है । गीतामें
आया है‒
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥
(४ । ३६)
‘अगर तू सब पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर
जायगा ।’
विवेक, वैराग्य, मुमुक्षा आदि होना तो दूर रहा,
सब पापियोंसे भी अधिक पापी हो तो वह भी ज्ञान प्राप्त कर सकता
है ! ‘न करोति न लिप्यते’ का अनुभव कर सकता
है ! हम चाहे ज्ञानमार्गसे चलें, चाहे भक्तिमार्गसे चलें,
सबसे पहले यह स्वीकार कर लें कि ‘मैं भगवान्का अंश हूँ ।’
कर्तृत्व और लिप्तता स्वाभाविक ही हमारेमें नहीं हैं । ऐसा विचार
करके चुप हो जायँ । इस बातको पक्की कर लें कि वास्तवमें बात ऐसी ही है । इसको हम भूल
जायँ तो भी बात ऐसी ही है । भूल अन्तःकरणमें होती है । हमारेमें भूल होती ही नहीं,
हो सकती ही नहीं । हम भले ही सच्ची बातको भूल जायँ और कर्ता-भोक्ता
बन जायँ तो भी वास्तवमें हम कर्ता-भोक्ता नहीं हैं । आप केवल इतना विचार रखें कि ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’‒यही बात सच्ची है
। गलत मान्यता सही मान्यतासे कट जाती है । सही मान्यता करनेमें,
सच्ची बातको माननेमें कोई उद्योग,
परिश्रम नहीं है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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