भगवान् अनन्त हैं,
इसलिये उनका सब कुछ अनन्त है‒‘हरि
अनंत हरि कथा अनंता’ (मानस,
बाल॰ १४० । ३) । उनका प्रेम भी अनन्त है । इसलिये प्रेममें अनन्तरस है । अनन्तरसका तात्पर्य
है कि प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है । प्रतिक्षण वर्धमान होनेके
लिये प्रेममें विरह और मिलन‒दोनोंका ही होना आवश्यक है । कारण कि विरहके बिना रसकी
वृद्धि नहीं होती और मिलनके बिना रसकी अनुभूति नहीं होती, उसका
आस्वादन नहीं होता । संसारमें
तो संयोगका रस भी नहीं रहता और वियोगका रस भी नहीं रहता;
क्योंकि संसारका नित्यवियोग है । परन्तु मिलन (योग)-का रस भी
नित्य रहता है और विरह (वियोग)-का रस भी नित्य रहता है;
क्योंकि भगवान्का नित्ययोग है । संसारके नित्यवियोगके अन्तर्गत
संयोग-वियोग होते हैं और भगवान्के नित्ययोगके अन्तर्गत मिलन-विरह होते हैं । जैसे,
माता कौसल्या सुमित्रासे कहती हैं कि ‘हे सुमित्रे यदि रामजी
वनमें चले गये हैं तो फिर मेरेको दीखते क्यों हैं
? और यदि वनमें नहीं गये हैं
तो सामने दीखनेपर भी हृदयमें जलन क्यों होती है
?’
अतः प्रेममें मिलन और विरह दोनों साथ-साथ रहते हैं‒
अरबरात मिलिबे को निसिदिन,
मिलेइ रहत मनु कबहुँ मिलै ना
।
‘भगवतरसिक’ रसिक की बातें,
रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना ॥
‘अरबरात मिलिबे को निसिदिन मिलेइ रहत’‒यह मिलन है और ‘मनु कबहुँ मिले ना’‒यह
विरह है । राधाजी सखीसे कहती हैं कि तुम धन्य हो जो श्रीकृष्णको देखती हो ! मैंने तो
आजतक श्रीकृष्णको देखा ही नहीं ! कारण कि जब श्रीकृष्ण सामने आये तो राधाजीकी दृष्टि
उनके कर्णकुण्डलमें ही अटक गयी, स्थिर हो गयी, उससे आगे बढ़ी ही नहीं ! फिर वे श्रीकृष्णको कैसे देखें
?
भगवान्का मिलन और विरह दोनों ही नित्य हैं,
अनिर्वचनीय हैं, दिव्य हैं, जिनसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है । मिलनमें प्रेमीको अपनेमें
प्रेमकी कमी मालूम देती है कि जैसे भगवान् हैं,
वैसा (भगवान्के लायक) मेरेमें प्रेम नहीं है;
और विरहमें प्रेमीको कभी प्रेमास्पदकी विस्मृति नहीं होती,
प्रत्युत निरन्तर स्मृति (तल्लीनता) बनी रहती है । यह मिलन और विरह‒दोनों भगवान् देते हैं और दोनों भगवत्स्वरूप ही
होते हैं । वे ‘विरह’ इसलिये देते हैं कि भक्त अपनेमें प्रेमकी कमीका अनुभव करे और
कमीका अनुभव होनेसे प्रेम बढ़े । वे ‘मिलन’ इसलिये देते हैं कि भक्त प्रेमका अनुभव करे,
आस्वादन करे ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे
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