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मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है । यद्यपि विवेक प्राणिमात्रमें विद्यमान
है, तथापि सत्-असत् और कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक मनुष्यशरीरमें ही
है । यह विवेक व्यवहार और परमार्थमें, लोक और परलोकमें सब जगह काम आता
है । इसलिये श्रीमद्भगवद्गीताके उपदेशमें भगवान्ने सबसे पहले सत्-असत्, शरीरी-शरीरके विवेकका विवेचन किया (गीता २ । ११‒३०) । परन्तु जिन मनुष्योंकी बुद्धि
तीक्ष्ण नहीं है और वैराग्य भी कम है, उनके लिये सत्-असत्के विवेकको
समझना कठिन पड़ता है । इसलिये ऐसे मनुष्योंके लिये भगवान्ने कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेचन
किया ( गीता २ । ३१‒३८) और अकर्तव्यका त्याग करके कर्तव्यका अर्थात् धर्मका पालन करनेकी
प्रेरणा की । कारण कि सत्-असत्के विवेकको महत्त्व देनेसे
जो तत्त्व मिलता है, वही तत्त्व अपने कर्तव्यका अर्थात् स्वधर्मका पालन करनेसे भी
मिल जाता है ।[1]
वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने
कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे पालन करनेका नाम ‘स्वधर्म’ है । कर्तव्य और धर्म‒दोनों एक
ही हैं । मनुष्यको परिस्थिति-रूपसे जो कर्तव्य प्राप्त हो
जाय, उसका पालन करना भी मनुष्यका धर्म है । जैसे, कोई विद्यार्थी है तो तत्परतासे
विद्या पढ़ना उसका धर्म है । कोई शिक्षक है तो विद्यार्थियोंको तत्परतासे पढ़ाना उसका
धर्म है । कोई साधक है तो तत्परतासे साधन करना उसका धर्म है । जिसमें दूसरेके अहितका, अनिष्टका भाव होता है, वह चोरी, हिंसा आदि कर्म किसीके भी धर्म नहीं हैं, प्रत्युत कुधर्म अथवा अधर्म हैं ।
मनुष्यमात्रका खास धर्म है‒स्वार्थ और अभिमानका त्याग
करके तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करना और किसीको कभी किंचिन्मात्र भी दुःख न
देना । दूसरेका कर्तव्य देखना अथवा दूसरेकी निन्दा, तिरस्कार करना भी किसीका कर्तव्य अर्थात् धर्म नहीं है । वास्तवमें
धर्म वही है, जिससे अपना भी हित हो और दूसरेका भी हित हो, अभी (वर्तमानमें) भी हित हो और परिणाम (भविष्य)-में भी हित हो, लोकमें भी हित हो और परलोकमें भी हित हो‒
यतोऽभ्युदयनि श्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
(वैशेषिक॰ १ । २)
अर्जुन क्षत्रिय थे; अत क्षात्रधर्मकी दृष्टिसे भगवान् कहते हैं‒
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय
कृतनिश्चयः ॥
(गीता २ । ३७)
‘अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी
प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा । अतः हे कुन्तीनन्दन
! तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा ।’
तात्पर्य है कि अपने धर्मका पालन करनेसे लोक और परलोक दोनों
सुधर जाते हैं अर्थात् लोकमें सुख-शान्ति हो जाती है, समाज सुखी हो जाता है और परलोकमें स्वर्गादि ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति होती है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सन्त-समागम’
पुस्तकसे
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि
गम्यते ।
एकं सांख्य च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
(गीता ५ । ४-५)
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