Apr
02
(गत ब्लॉगसे
आगेका)
यदि सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर अपने धर्मका पालन
किया जाय तो मनुष्य पाप और पुण्य दोनोंसे ऊँचा उठकर जन्म-मरणसे मुक्ति पा लेता है ।
इसलिये भगवान् कहते हैं‒
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
(गीता २ । ३८)
‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार
युद्ध करनेसे (अपने धर्मका पालन करनेसे) तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।’
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥
(गीता २ । ४८)
‘हे धनंजय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें
सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर; क्योंकि समत्व ही योग कहलाता है ।’
वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार सभी मनुष्योंका
अपना-अपना धर्म (कर्तव्य) कल्याणकारक है । परन्तु दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म देखनेसे उसकी अपेक्षा अपना धर्म कम गुणोंवाला दीख सकता है । जैसे, ब्राह्मणके धर्म (शम, दम, तप, क्षमा आदि)-की अपेक्षा क्षत्रियके धर्म (युद्ध आदि)-में अहिंसा
आदि गुणोंकी कमी दीख सकती है । ऐसा दीखनेपर वास्तवमें अपना धर्म ही कल्याण करनेवाला
है । इसलिये भगवान् कहते हैं‒
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥
(गीता ३ । ३५)
‘अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी
कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है । अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका
धर्म भयको देनेवाला है ।’
जो धर्मकी रक्षा करता है, उसकी रक्षा धर्म करता है‒‘धर्मो रक्षति रक्षितः’ (मनु॰ ८ । १५) । अतः जो धर्मका पालन करता है, उसकी रक्षा अर्थात् कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्टा
भगवान्, वेदों, शास्त्रों, ऋषियों, मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता
है । जैसे, शास्त्रोंमें आया है कि पातिव्रतधर्मका पालन करनेसे स्त्रीका कल्याण हो जाता है
तो वहाँ पातिव्रतधर्मकी आज्ञा देनेवाले भगवान्, वेद, शास्त्र आदिकी शक्तिसे ही कल्याण होता है, पतिकी शक्तिसे नहीं । पति चाहे कैसा ही हो, सदाचारी हो अथवा दुराचारी हो, तो भी पातिव्रतधर्मके कारण स्त्रीका
कल्याण हो जाता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
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