Apr
26
(गत ब्लॉगसे आगेका)
जो गायको मारते हैं,
मछलियोंको मारते हैं,
अण्डा खाते हैं, मांस खाते हैं, ऐसे लोग सत्संगमें नहीं आते । सत्संग उनको सुहाता नहीं । सत्संग
उनके विरुद्ध पड़ता है । अगर वे सत्संगमें आयेंगे तो उनको नींद आ जायगी ! वे सुनेंगे
ही नहीं, सुन सकते ही नहीं ! एक मेरे परिचित सज्जन थे । वे मांस खाते
थे । उन्होंने मेरेसे कहा कि आप हमारे यहाँ आते नहीं ! मैंने कहा कि तुम्हारे हृदयमें
मरे हुए मुर्देका जितना आदर है, उतना आदर हमारा नहीं है,
फिर हम क्यों आयें ?
मुर्देको हाथ भी लग जाय तो कपड़ोंसहित स्नान करना चाहिये । तुम्हारी
तो थालीमें मसान (श्मशान) है ! जब उनका अन्त समय आया,
तब (मरते समय) उनको भगवान्का नाम सुनाया तो उनको गुस्सा आ गया,
वे चिढ़ गये ! तात्पर्य है कि जो पाप करते हैं,
उनको भगवान्का नाम सुहाता नहीं,
वे सत्संग करते नहीं । उनका अन्तःकरण मैला हो जाता है । मैले
अन्तःकरणवालेको मैली बात ही अच्छी लगती है । बांकुड़ाकी बात है । एक बंगाली नदीके किनारे
बैठा मछलियाँ पकड़ रहा था । बद्रीदासजीने उससे पूछा कि इससे कितना पैसा पैदा होता है
? उसने लगभग चार आना बताया । बद्रीदासजीने उससे कहा कि उतना पैसा हम तुझे दे देंगे,
तुम हमारे यहाँ बैठकर राम-राम करो । वह राम-राम नहीं कर सका
और ‘होरे-होरे’ (हरि-हरि) करने लगा । वह दो दिन आया,
तीसरे दिन आया ही नहीं ! जाकर देखा तो वह पुनः मछलियाँ पकड़ रहा
था ! उससे पूछा कि तू नामजप करने आया नहीं ?
वह बोला कि ना बाबा,
यह काम हमसे नहीं होता !
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गायको हम माता मानते हैं । अतः उसका दूध पीनेमें दोष नहीं है । गायका दूध पीयेंगे,
तभी गायकी रक्षा होगी ! परन्तु उसके बछड़ा-बछड़ीको दूध न पिलाकर
खुद दूध पी लेना ठीक नहीं है । यह अन्याय है ! अगर बछड़ीको गायका पर्याप्त दूध पिलाया
जाय तो गाय बननेपर उसका दूध भी ज्यादा होगा । बछड़ीको कम दूध दोगे तो आगे उसका दूध ज्यादा
नहीं होगा । अतः बछड़ा-बछड़ीको दूध पिलाकर ही खुद दूध पीना चाहिये । दूसरी बात,
दूध दुहनेसे गायका दूध बढ़ता है । यदि दूध न दुहें,
केवल बछड़ा-बछड़ी ही दूध पियें तो गायका दूध स्वतः ही कम होगा
। यदि गायको ठीक खिलाया जाय और तीन समय दूध दुहा जाय तो दूध ज्यादा होगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |