Apr
27
(गत ब्लॉगसे आगेका)
हमें दो बातोंपर विचार करना है‒हमें क्या चाहिये ?
और हमें क्या करना है ?
हमारी चार तरहकी चाहना है‒धनकी चाहना,
धर्मकी चाहना, सुखभोगकी चाहना और कल्याणकी चाहना । इन चार चाहनाओंकी पूर्तिके
लिये हमारे पास दो ही साधन हैं‒प्रारब्ध और पुरुषार्थ । इन दोनोंमें एक-एक साधनके द्वारा
दो-दो चाहनाओंकी पूर्ति होती है । धर्म और मुक्ति‒इन दोनोंकी पूर्ति ‘पुरुषार्थ’ से होती है, तथा धन और भोग‒इन दोनोंकी पूर्ति ‘प्रारब्ध’ से होती है । इस विषयको ठीक तरहसे न जाननेके कारण लोग दुःख पा
रहे हैं । तात्पर्य है कि धन और भोगकी प्राप्तिमें प्रारब्ध (भाग्य) मुख्य है,
पुरुषार्थ (उद्योग) गौण है;
और धर्मका अनुष्ठान करनेमें तथा परमात्माकी प्राप्ति करनेमें
पुरुषार्थ मुख्य है, प्रारब्ध गौण है । इसलिये आप यह नियम तो लेते हैं कि रोजाना
अमुक संख्यामें नामजप, पाठ आदि करके फिर भोजन करेंगे,
पर यह नियम कोई नहीं लेता कि रोजाना अमुक संख्यामें रुपये कमाकर
ही हम भोजन करेंगे । इससे सिद्ध हुआ कि पैसा कमानेमें उद्योग मुख्य नहीं है । इसी तरह
हम तो रोजाना भोग भोगेंगे, रोजाना हलवा-पूड़ी खायेंगे,
भले ही बीमार पड़ जायँ‒ऐसा नियम कोई नहीं लेता । यह अनुभवसिद्ध
बात है । पैसा कमाने और भोग भोगनेमें आप स्वतन्त्र नहीं हो, पर भजन-ध्यान-सत्संग
करनेमें आप स्वतन्त्र हो; क्योंकि यह नया काम है ।
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अपनेको जो वस्तु योग्यता,
बल आदि मिले हैं, ये वास्तवमें हमारे नहीं हैं,
और हमारे पास रहेंगे भी नहीं । ये संसारके हैं और सबकी सेवाके
लिये हैं । तात्पर्य है कि हमारे पास जो वस्तु, योग्यता,
बल, विद्या, अधिकार आदि हैं, वे सब दूसरोंकी सेवाके लिये हैं,
हमारे लिये नहीं हैं । हमारे लिये वास्तवमें वह है,
जिसके हम अंश हैं‒‘ईस्वर
अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । आप ये दो विभाग कर लें कि शरीर, वस्तु योग्यता आदि सब संसारके लिये हैं और भगवान् मेरे लिये
हैं ।
एक बहुत मार्मिक बात है कि स्थूल, सूक्ष्म
और कारणशरीर परमात्मप्राप्तिमें न साधक हैं, न बाधक
हैं । ये तटस्थ हैं । एक परमात्माके
सिवाय संसारमें कोई चीज हमारी नहीं है । एक बड़ी पक्की, सच्ची, सिद्धान्तकी
बात है कि जो चीज हमें मिलती है और बिछुड़ जाती है, सदा हमारे साथ नहीं
रहती, वह हमारी नहीं होती । वह केवल सेवाके लिये है । इस बातको आप याद रखो । मेरेसे पूछो तो बहुत वर्षोंके बाद यह
मार्मिक बात मुझे मिली है !
मनुष्योंमें एक धारणा बैठी हुई है कि हम तो संसारी आदमी हैं,
परमात्मासे बहुत दूर हैं,
और परमात्मा बहुत उद्योग करनेसे तथा समय लगानेसे मिलेंगे । वास्तवमें
यह बात नहीं है । हम परमात्माके साक्षात् अंश हैं । परमात्मा हमारे हैं और हम परमात्माके
हैं । वे परमात्मा पहलेसे ही सभीको मिले हुए हैं और कभी बिछुड़ेंगे नहीं । उन परमात्माको
अपना मान लें । परमात्मा हमारे भीतर हैं, वे बाहर दौड़नेसे नहीं मिलते । पापी-से-पापीके हृदयमें भी परमात्मा
हैं और सन्त-महात्मा, तत्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी भक्तके हृदयमें भी परमात्मा हैं;
और वे परमात्मा अपने हैं । वे कभी हमें छोड़ेंगे नहीं । आप कृपा
करके उन्हें अपना मान लो तो निहाल हो जाओगे !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |