भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय
(गत ब्लॉगसे आगेका)
४. भगवन्नामका जप करना
कुटुम्बका
सम्बन्ध तो ‘नदी-नाव-संयोग’ की तरह है
। नदीके इस पार सब एक साथ नौकापर बैठ जाते हैं और उस पार पहुँचते
ही उतर जाते हैं । जबतक नदीसे पार नहीं होते,
तभीतक हमारा सम्बन्ध रहता है । ऐसे ही कुटुम्बका सम्बन्ध है,
जो आगे रहेगा नहीं,
छूट जायगा । यह सच्ची बात है । अगर
आप इस बातको मान लें कि ‘मैं शरीर-संसारका नहीं हूँ और शरीर-संसार मेरे नहीं
हैं, मैं परमात्माका हूँ और परमात्मा मेरे हैं, मैं
अपने परमात्माका नाम लेता हूँ’ तो भगवान्की ताकत नहीं कि वे आपकी तरफ कृपा-दृष्टिसे
न देखें !
भगवान्के होकर भगवान्के नामका जप करो‒‘होहि
राम को नाम जपु’ । बच्चा माँके साथ जितना अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है,
माँ उतनी ही जल्दी उसके पास आती है । बालक जोरसे रो पड़ता है
तो माँ अपनी बड़ी लड़कीको भेजती है कि बेटी ! जा,
भाईको समझा, राजी कर । वह आकर भाईके हाथमें झुनझुनियाँ देती है,
पर वह उसे फेंक देता है । वह लड्डू देती है तो उसे भी फेंक
देता है । बहन उसको गोदीमें लेती है तो वह लात मारता है और माँ-माँ करता है । तब माँको
उसके पास आना ही पड़ता है । अगर वह झुनझुनियाँसे राजी हो जाय अथवा बहनकी गोदमें चला
जाय तो फिर माँ उसके पास नहीं आती । बहनकी गोदमें माँका दूध थोड़े ही है,
वह प्यार थोड़े ही है ! इस तरह नाम-जप
करनेवालेका लोगोंमें आदर होता है कि वाह सा ! ये तो भगतजी हैं, भजन
करनेवाले हैं ! बस, अब झुनझुना बजाओ बैठे ! लोग आदर-सम्मान करने लगते
हैं, दण्डवत् प्रणाम करते हैं, पूजन
करते हैं, प्रशंसा करते हैं कि ये बड़े भारी महात्मा हैं । यह
मायारूपी बहन आती है और गोदमें ले लेती है । उसमें राजी हो जाते हो तो फिर भगवान् नहीं
आते । नामकी बिक्री करके उसके बदले आदर लेते हो, भेंट-नमस्कार
लेते हो, सुख लेते हो तो बताओ, नामका
संग्रह कैसे हो ?
(२)
‘भगवान्
हैं’‒इतना आप मान लो, भले
ही उनका अनुभव अभी न हो । सन्त-महात्मा कहते हैं, वेद-पुराण कहते हैं,
बड़े-बड़े जानकार कहते हैं कि ‘वह है’ । बस ‘वह है’‒ऐसा मानते हुए लगनपूर्वक राम-राम जप करो तो बहुत जल्दी अनुभव
हो जायगा । उसका अनुभव कैसे हो ? क्या करूँ ? कैसे करूँ ? किससे पूछूँ यह जिज्ञासा जोरदार हो जाय । राम-नामको छोड़ो मत; क्योंकि
इसके सिवाय संसारमें और कोई सहारा नहीं है । मरनेपर भी कहते हैं‒‘राम-नाम सत्य है’
। शरीर-संसार असत्य है । अतः रामराम करते रहो । ‘र’ में, ‘आ’ में, ‘म’ में, जीभमें, मनमें, स्कुरणामें, चिन्तनमें, बुद्धिमें, मैपनमें‒सब जगह वह परमात्मा परिपूर्ण है । जो सबमें रमण करता
है और जिसमें सभी रहते हैं, उसका नाम ‘राम’ है ।
आप यह बात चाहे श्रद्धासे मान लो,
चाहे विश्वाससे मान लो,
चाहे युक्तिसे मान लो,
चाहे अनुभवसे मान लो,
चाहे सोच-समझकर मान लो कि परमात्मा सब जगह हैं । जहाँ आप हो,
वहीं परमात्मा हैं । आपकी एकता परमात्माके साथ है,
बदलनेवाले शरीरके साथ नहीं । शास्त्र भी डंकेकी
चोटसे कहता है कि परमात्मा सब जगह हैं,
सबमें हैं, सबके अपने हैं, सबके सुहृद् हैं । आप इसको दृढ़तासे मान लो । साधकसे बड़ी भूल यही होती है कि वह ‘भजन
करेंगे, फिर परमात्मा मिलेंगे’‒ऐसा
मान लेता है । यह भविष्यकी आशा ही महान् बाधक है । शास्त्रोंसे, सन्तोंके कहनेसे, किसीके कहनेसे यह मान लो कि परमात्मा तो मिले हुए ही हैं,
केवल हमें दीखते नहीं । वर्तमानमें परमात्माका अभाव स्वीकार
मत करो । अपनेको उनका अनुभव नहीं हो रहा है;
अतः अनुभव कैसे हो‒इसके लिये रात-दिन
राम-राम रटना शुरू कर दो । फिर देखो तमाशा ! कितनी जल्दी अनुभव होता है !
जो जिव चाहे मुक्ति को, तो सुमिरीजै
राम ।
हरिया गैले चालतां, जैसे आवै गाम
॥
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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