भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय
(गत ब्लॉगसे आगेका)
५. चुप-साधन
(१)
एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है‒ऐसा
निश्चय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे । परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन हैं । ‘घन’ का अर्थ होता है‒ठोस । जैसे,
पत्थर या काँच ठोस होता है,
इसलिये उसमें सुई नहीं चुभती । परन्तु परमात्मा पत्थर या काँचसे
भी ज्यादा ठोस हैं । कारण कि पत्थर या काँचमें तो अग्नि प्रविष्ट हो जाती है,
पर परमात्मामें कोई भी वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती । ऐसे सर्वथा
ठोस परमात्माका साधक चिन्तन करता है तो उल्टे उनसे दूर होता
है ! इसलिये वह जहाँ है, वहीं (निद्रा-आलस्य छोड़कर) बाहर-भीतरसे चुप,
शान्त रहनेका स्वभाव बना ले । यह बहुत सुगम और बहुत बढ़िया साधन
है । इससे बहुत शान्ति मिलेगी और सब पाप-ताप नष्ट हो जायँगे ।
(२)
बाहर-भीतरसे चुप हो जाना ‘चुप-साधन’ है
। भीतरसे ऐसा विचार कर लें कि
मेरेको कुछ करना है ही नहीं । न स्वार्थ, न परमार्थ; न लौकिक, न पारलौकिक, कुछ भी नहीं करना है । ऐसा विचार करके बैठ जायँ । बैठनेका बढ़िया समय है‒प्रात: नींदसे उठनेके बाद । नींदसे
उठते ही भगवान्को नमस्कार करके बैठ जायँ । जैसे गाढ़ नींदमें किचिन्मात्र भी कुछ करनेका
संकल्प नहीं था, ऐसे ही जाग्रत्-अवस्थामें किचिन्मात्र भी कुछ करनेका संकल्प
न रहे । चिन्तन, जप, ध्यान आदि कुछ भी नहीं करना है । परन्तु ‘चिन्तन
आदि नहीं करना है’‒यह संकल्प भी नहीं रखना है; क्योंकि
‘न करने’
का संकल्प रखना भी ‘करना’ है
। वास्तवमें ‘न करना’ स्वतःसिद्ध है । मन-बुद्धि आदिको स्वीकार करके ही ‘करना’ होता है ।
अब किचिन्मात्र भी कुछ नहीं करना है‒ऐसा विचार करके चुप हो जायँ
। यदि मन न माने तो ‘सब जगह एक परमात्मा परिपूर्ण हैं’‒ऐसा मानकर चुप हो जायँ । सगुणकी उपासना करते हों तो ‘मैं प्रभुके चरणोंमें पड़ा हूँ’‒ऐसा मानकर चुप हो जायँ । परन्तु यह दो नम्बरकी बात है । एक नम्बरकी बात तो यह है कि कुछ करना ही नहीं है । इस प्रकार चुप
होनेपर भीतरमें कोई संकल्प- विकल्प हो, कोई
बात याद आये तो उसकी उपेक्षा करें, विरोध न करें । उसमें न राजी हों, न नाराज
हों; न राग करें, न द्वेष
करें । शास्त्रविहित अच्छे संकल्प
आयें तो उसमें राजी न हों और शास्त्रनिषिद्ध बुरे संकल्प आयें तो उसमें नाराज न हों
। स्वयं भी उन संकल्पोंके साथ न चिपकें अर्थात् उनको अपना न मानें ।
आप कहते हैं कि मन बड़ा खराब है,
पर वास्तवमें मन अच्छा और खराब होता
ही नहीं । अच्छा और खराब स्वयं ही होता है । स्वयं अच्छा होता है तो संकल्प
अच्छे होते हैं और स्वयं खराब होता है तो संकल्प खराब होते हैं । अच्छा और खराब‒ये
दोनों ही प्रकृतिके सम्बन्धसे होते हैं । प्रकृतिके सम्बन्धके
बिना न अच्छा होता है और न बुरा होता है । जैसे सुख और दुःख दो चीज हैं,
पर आनन्दमें दो चीज नहीं हैं अर्थात् आनन्दमें न सुख है,
न दुःख है । ऐसे ही प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित तत्त्वमें न अच्छा
है, न बुरा है । इसलिये अच्छे और बुरेका भेद करके राजी और नाराज न हों ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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