।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
       पौष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
   भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय


भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय

(गत ब्लॉगसे आगेका)

५. चुप-साधन

(१)

एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके सिवाय कुछ भी नहीं है‒ऐसा निश्चय करके फिर कुछ भी चिन्तन न करे । परमात्मा स्वतः-स्वाभाविक सद्‌घन, चिद्‌घन और आनन्दघन हैं । घन’ का अर्थ होता है‒ठोस । जैसे, पत्थर या काँच ठोस होता है, इसलिये उसमें सुई नहीं चुभती । परन्तु परमात्मा पत्थर या काँचसे भी ज्यादा ठोस हैं । कारण कि पत्थर या काँचमें तो अग्नि प्रविष्ट हो जाती है, पर परमात्मामें कोई भी वस्तु प्रविष्ट नहीं हो सकती । ऐसे सर्वथा ठोस परमात्माका साधक चिन्तन करता है तो उल्टे उनसे दूर होता है ! इसलिये वह जहाँ है, वहीं (निद्रा-आलस्य छोड़कर) बाहर-भीतरसे चुप, शान्त रहनेका स्वभाव बना ले । यह बहुत सुगम और बहुत बढ़िया साधन है । इससे बहुत शान्ति मिलेगी और सब पाप-ताप नष्ट हो जायँगे ।

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बाहर-भीतरसे चुप हो जाना चुप-साधन’ है । भीतरसे ऐसा विचार कर लें कि मेरेको कुछ करना है ही नहीं । न स्वार्थ, न परमार्थ; न लौकिक, न पारलौकिक, कुछ भी नहीं करना है । ऐसा विचार करके बैठ जायँ । बैठनेका बढ़िया समय है‒प्रात: नींदसे उठनेके बाद । नींदसे उठते ही भगवान्‌को नमस्कार करके बैठ जायँ । जैसे गाढ़ नींदमें किचिन्मात्र भी कुछ करनेका संकल्प नहीं था, ऐसे ही जाग्रत्-अवस्थामें किचिन्मात्र भी कुछ करनेका संकल्प न रहे । चिन्तन, जप, ध्यान आदि कुछ भी नहीं करना है । परन्तु चिन्तन आदि नहीं करना है’यह संकल्प भी नहीं रखना है; क्योंकि न करने’ का संकल्प रखना भी करना’ है । वास्तवमें न करना’ स्वतःसिद्ध है । मन-बुद्धि आदिको स्वीकार करके ही करना’ होता है ।

अब किचिन्मात्र भी कुछ नहीं करना है‒ऐसा विचार करके चुप हो जायँ । यदि मन न माने तो सब जगह एक परमात्मा परिपूर्ण हैं’ऐसा मानकर चुप हो जायँ । सगुणकी उपासना करते हों तो मैं प्रभुके चरणोंमें पड़ा हूँ’ऐसा मानकर चुप हो जायँ । परन्तु यह दो नम्बरकी बात है । एक नम्बरकी बात तो यह है कि कुछ करना ही नहीं है । इस प्रकार चुप होनेपर भीतरमें कोई संकल्प- विकल्प हो, कोई बात याद आये तो उसकी उपेक्षा करें, विरोध न करें । उसमें न राजी हों, न नाराज हों; न राग करें, न द्वेष करें । शास्त्रविहित अच्छे संकल्प आयें तो उसमें राजी न हों और शास्त्रनिषिद्ध बुरे संकल्प आयें तो उसमें नाराज न हों । स्वयं भी उन संकल्पोंके साथ न चिपकें अर्थात् उनको अपना न मानें ।


आप कहते हैं कि मन बड़ा खराब है, पर वास्तवमें मन अच्छा और खराब होता ही नहीं । अच्छा और खराब स्वयं ही होता है । स्वयं अच्छा होता है तो संकल्प अच्छे होते हैं और स्वयं खराब होता है तो संकल्प खराब होते हैं । अच्छा और खराब‒ये दोनों ही प्रकृतिके सम्बन्धसे होते हैं । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना न अच्छा होता है और न बुरा होता है । जैसे सुख और दुःख दो चीज हैं, पर आनन्दमें दो चीज नहीं हैं अर्थात् आनन्दमें न सुख है, न दुःख है । ऐसे ही प्रकृतिके सम्बन्धसे रहित तत्त्वमें न अच्छा है, न बुरा है । इसलिये अच्छे और बुरेका भेद करके राजी और नाराज न हों ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे