भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय
(गत ब्लॉगसे आगेका)
५. चुप-साधन
संकल्प आयें अथवा जायँ,
उसमें पहलेसे ही यह विचार कर लें कि वास्तवमें संकल्प आता नहीं
है, प्रत्युत जाता है । भूतकालमें हमने जो काम किये हैं,
उनकी याद आती है अथवा भविष्यमें कुछ करनेका विचार पकड़ रखा है,
उसकी याद आती है कि वहाँ जाना है,
वह काम करना है आदि । इस तरह भूत और भविष्यकी याद आती है,
जो अभी है ही नहीं । वास्तवमें उसकी याद आ नहीं रही है,
प्रत्युत स्वतः जा रही है । मनमें जो बातें जमी हैं,
वे निकल रही हैं । अतः आप उससे सम्बन्ध मत जोड़े,
तटस्थ हो जायँ । सम्बन्ध नहीं जोड़नेसे
आपको उन संकल्पोंका दोष नहीं लगेगा और वे संकल्प भी अपने-आप नष्ट हो जायँगे; क्योंकि
उत्पन्न होनेवाली वस्तु स्वतः नष्ट होती है‒यह नियम है ।
संसारमें बहुत-से पुण्यकर्म होते हैं,
पर क्या हमें उनसे पुण्य होता है
? ऐसे ही संसारमें बहुत-से पापकर्म
होते हैं, पर क्या हमें उनका पाप लगता है
? नहीं लगता । क्यों नहीं लगता
? कि हमारा उनसे सम्बन्ध नहीं
है । उनके साथ हमारा सहयोग नहीं है । जैसे संसारमें पुण्य-पाप हो रहे हैं,
ऐसे ही मनमें संकल्प-विकल्प हो रहे हैं । हम उनको करते नहीं
और करना चाहते भी नहीं । हम उनके साथ चिपक जाते हैं तो उनकी पुण्य और पापकी,
अच्छे और बुरेकी संज्ञा हो जाती है,
जिससे उनका फल पैदा हो जाता है और वह फल हमें भोगना पड़ता है
। इसलिये उनके साथ मिले नहीं । न अनुमोदन करें, न विरोध
करें । संकल्प-विकल्प उठते हैं तो उठते रहें । यह करना है और यह नहीं करना है‒इन दोनोंको
उठा दें । गीतामें आया है‒
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
(३ । १८)
करने और न करने‒दोनोंका ही आग्रह न रखें । करनेका आग्रह रखना भी संकल्प है और न करनेका आग्रह रखना भी संकल्प
है । करना भी कर्म है और न करना भी कर्म है । करनेमें भी परिश्रम है और न करनेमें भी
परिश्रम है । अतः करने और न करने‒दोनोंसे किंचिन्मात्र भी
कोई मतलब न रखकर चुप हो जायँ तो प्रकृतिका सम्बन्ध छूट जाता है और स्वतः परम विश्राम
प्राप्त हो जाता है; क्योंकि क्रियारूपसे प्रकृति ही है । वह क्रिया चाहे शरीरकी
हो, चाहे मनकी हो, सब प्रकृतिकी ही है । इस प्रकार बाहर-भीतरसे चुप हो जायँ तो
जिसको तत्त्वज्ञान कहते हैं, जीवन्मुक्ति कहते हैं,
सहज समाधि कहते हैं,
वह स्वतः हो जायगी ।
(३)
एक सिद्धान्तकी बात है कि जो सब जगह मौजूद परमात्मा हैं,
वे क्रियासे प्राप्त नहीं होते । वे बिना क्रियाके प्राप्त होते
हैं । परमात्मा सब जगह है तो फिर उनको ढूँढ़ोगे कहाँ
? जाओगे कहाँ
? कोई भी चेष्टा न करे,
कुछ भी चिन्तन न करे;
जहाँ है, वहीं स्थिर हो जाय तो उसकी प्राप्ति होती है । क्रियारहित होनेपर परमात्मामें ही स्थिति होती है । अतः जहाँ हैं, वहीं
चुप, शान्त हो जायँ‒‘न किञ्चिदपि
चिन्तयेत्’ (गीता ६ । २५) । परमात्माको ढूँढ़ोगे तो दूर हो जाओगे;
क्योंकि ढूँढ़नेसे वृत्ति दूसरी जगह जायगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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