भगवत्प्राप्तिके विविध सुगम उपाय
(गत ब्लॉगसे आगेका)
५. चुप-साधन
शान्त होना, कुछ भी चिन्तन न करना एक बहुत बड़ा साधन है । जो पैदा होता है,
स्थिरतासे ही पैदा होता है और स्थिरतामें ही उसकी समाप्ति होती
है । स्थिरता स्वतःसिद्ध है और क्रिया कृत्रिम है । स्थिरता हरदम रहती है,
पर क्रिया हरदम नहीं रहती । इसलिये कुछ भी चिन्तन न करनेसे साधककी
परमात्मामें ही स्थिति होती है । चिन्तन करनेसे वह परमात्मासे अलग होता है । कुछ भी चिन्तन न करना परमात्माकी प्राप्तिका बहुत बढ़िया, सर्वोपरि
साधन है ।
क्रिया करनेसे दो व्यक्तियोंको भी एक समान वस्तुकी प्राप्ति
नहीं होती, पर क्रियारहित होनेपर सभीको समान तत्त्वकी प्राप्ति होती है
। बोलनेमें दो आदमी भी समान नहीं होते, पर न बोलनेमें सब एक हो जाते हैं । विद्वान-से-विद्वान् हो अथवा
मूर्ख-से-मूर्ख हो, अगर वे कुछ न बोलें,
कोई चेष्टा न करें तो उनमें क्या फर्क है
? करनेमें दो भी बराबर
नहीं होते, पर न करनेमें सब एक हो जाते हैं ।
आप कुछ भी चिन्तन न करनेका, शान्त
रहनेका स्वभाव बना लें तो परमात्मस्वरूपमें स्थिति स्वतः-स्वाभाविक हो जायगी ।
६. भगवान्की कृपाका आश्रय लेना
(१)
भगवान्की एक बान (स्वभाव,
आदत या प्रकृति) है कि उनको वही भक्त प्यारा लगता है जिसका दूसरा
कोई सहारा नहीं है‒
एक बानि करुनानिधान
की,
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस, अरण्य॰ १० । ४)
इसलिये‒
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास
।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
(दोहावली २७७)
‒इस प्रकार अनन्यभावसे केवल भगवान्के आश्रित रहे और भजन करे
। भजनका भी अभिमान नहीं होना चाहिये कि मैं इतना जप करता हूँ इतना ध्यान करता हूँ आदि
। भक्त जप आदि तो इसलिये करता है कि इनके बिना और करें भी क्या ! क्योंकि बढ़िया-से-बढ़िया
काम यही है । परन्तु भजनके द्वारा मैं भगवान्को प्राप्त कर लूँगा‒यह भाव उसमें नहीं
होता । उसका यह भाव होता है कि वास्तवमें भजन भगवान्की कृपासे
ही हो रहा है और भगवान्की प्राप्ति भी उनकी कृपासे ही होगी । भगवान्की कृपाके बिना
अन्य कोई सहारा न हो‒यह अनन्यभक्ति है । अनन्यभक्तिसे भगवान् सुलभ हो जाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तकसे
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