(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒परमात्मा सर्वत्र
व्यापक हैं, फिर भी लोगोंकी दुःख-निवृत्ति और परमानन्दकी प्राप्ति क्यों नहीं हो रही है
?
स्वामीजी‒सर्वत्र परिपूर्ण परमात्माकी तरफ ध्यान
नहीं है !
आनँद-सिंधु-मध्य तव वासा ।
बिनु जाने कस मरसि पियासा
॥
(विनयपत्रिका
१३६ । २)
गंगाजीके किनारे बैठे हैं और प्यासे मर रहे हैं और जल
रहे हैं ! गंगाजीके किनारे प्यास
और जलन कैसी ? उल्टी बात है ! वास्तवमें
गंगाजीकी तरफ ध्यान ही नहीं है ! गंगाजी यहाँ हैं, इसका पता ही नहीं है ! उसीका पता लगानेके लिये ही यह
सत्संग-समारोह है !
श्रोता‒वैद्य दवा देता है तो
उसपर विश्वास हो जाता है, कोई रास्ता बता देता है
तो विश्वास हो जाता है,
पर
‘वासुदेव:
सर्वम्’ जैसी ऊँची बात
आप हमको बता रहे हैं,
फिर भी सहजतापूर्वक विश्वास क्यों नहीं होता ? इसमें
असली कारण क्या है ? हमारी भूल कहाँ है ?
स्वामीजी‒संसारका महत्त्व आपके हृदयमें अंकित
है । आपके भीतर उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुका महत्त्व है, पर अनुत्पन्न
अविनाशी तत्त्वका महत्व नहीं है । उधर आपका ख्याल ही नहीं है । यही कारण है ।
श्रोता‒आप जो परा और अपरा
प्रकृतिकी बात बताते हैं, वह हमारे हृदयमें अच्छी तरहसे बैठ गयी है
। परन्तु
भगवत्प्राप्ति क्या होती है, उसका साक्षात्कार क्या होता है,
यह
हमारी समझमें नहीं आया !
स्वामीजी‒यह समझमें नहीं आयेगा । यह तो मानना
ही पड़ेगा । भगवान् समझमें नहीं आते । माँ-बाप समझमें आते हैं क्या ? माँ-बाप समझमें नहीं आते, उनको
तो मानना ही पड़ता है । जैसे आपने माँ-बापको माना है, ऐसे ही भगवान्को मान लो । भगवान्की प्राप्ति हो जायगी । माननेके सिवाय और कर भी क्या सकते हो ! चाहे उसको मान लो, चाहे उसकी खोज करो, पर समय बर्बाद मत करो ।
श्रोता‒संसार नाशवान् है और सब
कुछ परमात्माका स्वरूप है‒इन दोनोंमें हमारे लिये श्रेष्ठ
बात कौन-सी है ?
स्वामीजी‒आपमें अगर राग है तो मिटाना श्रेष्ठ
है, और वैराग्य है तो मानना
श्रेष्ठ है ।
श्रोता‒संसार अपना नहीं है, संसारकी कोई वस्तु अपनी नहीं
है, फिर हम बैठे-बैठे करें क्या
?
स्वामीजी‒राम-राम करो और सबकी सेवा करो । सब वस्तुएँ
सेवाके लिये हैं, सुख भोगनेके लिये नहीं । मनुष्यमात्रके लिये दो ही बातें हैं‒भगवान्को याद करो और संसारकी
सेवा करो । कुछ बाकी नहीं रहेगा, सब ठीक हो जायगा ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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