।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७४, शुक्रवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताआपने कहा है कि ज्ञान होनेके बाद भी एक सूक्ष्म अहम् रहता है, जिसके कारण अनेक शास्त्रीय मतभेद पैदा होते हैं, लेकिन भक्तिमें यह सूक्ष्म अहम् भी नहीं रहता परन्तु भक्तिमें भी तो अनेक प्रकारके मतभेद उपलब्ध होते हैं ?

स्वामीजीभक्तिके आचार्योंमें भी मतभेद रहता है । परन्तु प्रेमलक्षणा भक्तिमें अहंकार तथा उससे होनेवाला मतभेद नहीं रहता । गोस्वामी तुलसीदासजी महाराजने लिखा है

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
                      (मानस, उत्तर ४९ । ३)

श्रोतासाधनकी खास बात क्या है ?

स्वामीजीसाधनकी खास बात हैउत्कट अभिलाषा हो जाय । केवल परमात्माकी जोरदार चाहना हो जाय । भोग और संग्रहकी इच्छा न रहे । जीनेकी इच्छा भी न रहे ! केवल कल्याणकी इच्छा रहे । पहली खास बात यह है कि अनन्त ब्रह्माण्डोमें तिल-जितनी चीज भी मेरी नहीं है । जब मेरा कुछ नहीं है, तो फिर मुझे कुछ नहीं चाहियेयह हो जायगा । फिर मैं कुछ नहींयह हो जायगा अर्थात् मैंपन नहीं रहेगा । मेरा कुछ नहीं, मुझे कुछ नहीं चाहिये और मैं कुछ नहींये तीन बातें होनेपर पूर्णता हो जायगी ।

मेरा कुछ नहीं हैयह खास बात है । स्थूल, सूक्ष्म और कारणतीनों ही शरीर मेरा स्वरूप नहीं हैं । शरीरको अपना स्वरूप माननेसे ही सम्पूर्ण दोष पैदा होते हैं‒‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ । इसलिये सबसे पहले यह बात आनी चाहिये कि एक भगवान्के सिवाय मेरा कुछ नहीं है ।

श्रोतामैं अपना इष्ट माँ (देवी)-को मानती हूँ और जप भगवान् कृष्णका करती हूँ तो मन्त्रका जप किसी औरका हो और इष्ट किसी औरका होऐसा हो सकता है क्या ?

स्वामीजीहो सकता है । कृष्णरूपसे भी मेरी माँ ही है । माँ ही रामरूप बनी है, माँ ही कृष्णरूप बनी है, माँ ही विष्णुरूप बनी है, माँ ही शिवरूप बनी है, माँ ही शक्तिरूप बनी है, माँ ही गणेशरूप बनी है, माँ ही सूर्यरूप बनी है । सब स्वरूप हमारी माँका ही हैयह पक्का जान लो ।


एक साधु थे । वे पढ़े-लिखे नहीं थे । वे देवीकी प्रार्थना करते समय ‘नमस्तस्यै’ न कहकर ‘नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमस्तस्मै नमो नमः’ इस तरह बोलते थे । एक पढ़े-लिखे आदमीने उनसे कहा कि तुम अशुद्ध मत बोलो । पुरुषके लिये तो ‘नमस्तस्मै’ कहना चाहिये, पर स्त्रीके लिये ‘नमस्तस्यै’ कहना चाहिये । साधुने ‘नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः’ कहना शुरू कर दिया; परन्तु पहलेका अभ्यास पड़ा होनेसे बार-बार मुँहसे ‘नमस्तस्मै’ ही निकल जाता था ! उस बतानेवाले आदमीके स्वप्नमें माँ आकर छातीपर बैठ गयी और बोली कि ‘तू मेरेको स्त्री समझता है क्या ? तेरे प्राण ले लूँगी ! तूने उसको क्यों मना किया ? वह जैसा कहे, उसीमें मैं राजी हूँ ! क्योंकि वह भावसे कह रहा है’ । तात्पर्य है कि आपके मनमें ठीक जँच जाना चाहिये कि हमारी माँ ही राम, कृष्ण आदि सब बनी है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे