(गत ब्लॉगसे आगेका)
मनुष्यशरीर बड़ा दुर्लभ है‒ऐसा शास्त्रोंमें जगह-जगह कहा है । वेदोंकी, पुराणोंकी, सन्तोंकी, शास्त्रोंकी वाणीमें जगह-जगह मनुष्यशरीरको दुर्लभ बताया है । परन्तु आज लोगोंमें इस बातकी मुख्यता हो
रही है कि मनुष्य जन्मे ही नहीं ! यह (गर्भपात) महान् हत्या है.....महान् हत्या है.....महान् हत्या है !! बड़ा भारी पाप है ! बड़ा भारी अन्याय है ! स्कन्दपुराणमें ऐसी बात आयी है कि पहले जितने कलियुग आये हैं, उनमें यह कलियुग सबसे भयंकर है ![*] इसमें आदमियोंकी बुद्धि
बहुत भ्रष्ट होगी । इतना भयंकर कलियुग पहले नहीं आया है । शास्त्रोंमें किसी भी कलियुगमें
गर्भपात करने, नसबन्दी करनेकी बात आयी हो तो बताओ !
अगर मनुष्य सावधान रहकर साधन करे तो
बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है । कलियुगमें भगवद्भजनकी महिमा सब युगोंसे बहुत ज्यादा है‒
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम
प्रभाऊ ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ
॥
(मानस,
बाल॰ २२ । ४)
‘यों तो चारों युगोंमें और चारों ही
वेदोंमें नामका प्रभाव है; परन्तु कलियुगमें विशेषरूपसे है । इसमें
तो (नामको छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं
है ।’
श्रोता‒कलियुगमें भगवान्का नाम बड़ा है या
कीर्तन बड़ा है ?
स्वामीजी‒नामका स्मरण करो, नामका जप करो अथवा
नामका कीर्तन करो‒एक ही बात है । जब मैंने पढ़ाई कर ली,
तब विचार किया कि अब क्या करना चाहिये ? तो यह
विचार किया कि अब सब छोड़कर आध्यात्मिक उन्नतिमें लगना है । मैंने तरह-तरहकी बातें सुनीं, तरह-तरहके साधन
किये । लगभग संवत् १९८७ के बाद मैं विशेषतासे लगा । मेरे विद्यागुरुजीने
आग्रह किया कि तुम मण्डलेश्वर, महन्त बन जाओ । मैंने कहा कि मेरी
रुचि नहीं है । वे बोले कि मण्डलेश्वर बन जाओ तो मैं प्रचार करूँगा । मेरेको प्रचार
करनेके बहुत प्रकार आते हैं । मैंने कहा कि मण्डलेश्वर, महन्त
बननेका मेरा मन नहीं है । वे बोले-तो फिर यार विरक्त,
त्यागी बन जाओ । मैंने कहा‒यह बात ठीक है । यह
बात मेरे मनमें सुहाती है ! फिर संवत् १९९० में सेठजी
(श्रीजयदयालजी गोयन्दका) -के पास आया । मेरी दृष्टिमें
ऐसा (सेठजीके समान) साधुओंमें, गृहस्थोंमें कोई देखनेमें नहीं आया । मैंने ‘कल्याण’ में सेठजीके लेख पड़े ।
लेखोंको पढ़नेसे मेरेपर असर पड़ा कि ये विद्याके जोरसे नहीं लिखते । ये अनुभवी पुरुष
हैं । बिना अनुभव वे ऐसा लिख सकते नहीं । अतः इनके पास जाना है और लाभ उठाना है‒ऐसा सोचकर मैं सेठजीके पास आया । उनके पास आनेके बाद फिर और जगह जानेकी मनमें
नहीं आयी । उनसे बढ़कर मेरेको कोई दीखा नहीं । अतः फिर मैं कहीं नहीं गया । पहले मैं
उनको ‘कल्याण’ के लेखकके रूपमें जानता था । उनका ‘गीताप्रेस’ से कोई सम्बन्ध है‒इसका पता मेरेको नहीं था । उनके पास आनेके बाद पता लगा कि ‘गीताप्रेस’ इनका
ही बनाया हुआ है !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
अष्टाविशकलिश्चैव शेषः प्रावर्त्त
अन्यतः ।
(स्कन्दपुराण,
माहेश्वर॰ कुमारिका॰ ४० । ७४-७५)
‘प्रथम सत्ययुग, अन्तिम सत्ययुग तथा अट्ठाईसवाँ कलियुग‒ये अन्य युगोंसे कुछ विशिष्टता रखते हैं । शेष युगोंकी प्रवृत्ति औरोंके समान
ही होती है ।’
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