।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७४, रविवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

मनुष्यशरीर बड़ा दुर्लभ हैऐसा शास्त्रोंमें जगह-जगह कहा है । वेदोंकी, पुराणोंकी, सन्तोंकी, शास्त्रोंकी वाणीमें जगह-जगह मनुष्यशरीरको दुर्लभ बताया है । परन्तु आज लोगोंमें इस बातकी मुख्यता हो रही है कि मनुष्य जन्मे ही नहीं ! यह (गर्भपात) महान् हत्या है.....महान् हत्या है.....महान् हत्या है !! बड़ा भारी पाप है ! बड़ा भारी अन्याय है ! स्कन्दपुराणमें ऐसी बात आयी है कि पहले जितने कलियुग आये हैं, उनमें यह कलियुग सबसे भयंकर है ![*] इसमें आदमियोंकी बुद्धि बहुत भ्रष्ट होगी । इतना भयंकर कलियुग पहले नहीं आया है । शास्त्रोंमें किसी भी कलियुगमें गर्भपात करने, नसबन्दी करनेकी बात आयी हो तो बताओ !

अगर मनुष्य सावधान रहकर साधन करे तो बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है । कलियुगमें भगवद्भजनकी महिमा सब युगोंसे बहुत ज्यादा है

चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ ॥
                             (मानस, बाल २२ । ४)

‘यों तो चारों युगोंमें और चारों ही वेदोंमें नामका प्रभाव है; परन्तु कलियुगमें विशेषरूपसे है । इसमें तो (नामको छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है ।’

श्रोताकलियुगमें भगवान्का नाम बड़ा है या कीर्तन बड़ा है ?

स्वामीजीनामका स्मरण करो, नामका जप करो अथवा नामका कीर्तन करोएक ही बात है । जब मैंने पढ़ाई कर ली, तब विचार किया कि अब क्या करना चाहिये ? तो यह विचार किया कि अब सब छोड़कर आध्यात्मिक उन्नतिमें लगना है । मैंने तरह-तरहकी बातें सुनीं, तरह-तरहके साधन किये । लगभग संवत् १९८७ के बाद मैं विशेषतासे लगा । मेरे विद्यागुरुजीने आग्रह किया कि तुम मण्डलेश्वर, महन्त बन जाओ । मैंने कहा कि मेरी रुचि नहीं है । वे बोले कि मण्डलेश्वर बन जाओ तो मैं प्रचार करूँगा । मेरेको प्रचार करनेके बहुत प्रकार आते हैं । मैंने कहा कि मण्डलेश्वर, महन्त बननेका मेरा मन नहीं है । वे बोले-तो फिर यार विरक्त, त्यागी बन जाओ । मैंने कहायह बात ठीक है । यह बात मेरे मनमें सुहाती है ! फिर संवत् १९९० में सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) -के पास आया । मेरी दृष्टिमें ऐसा (सेठजीके समान) साधुओंमें, गृहस्थोंमें कोई देखनेमें नहीं आया । मैंने ‘कल्याण’ में सेठजीके लेख पड़े । लेखोंको पढ़नेसे मेरेपर असर पड़ा कि ये विद्याके जोरसे नहीं लिखते । ये अनुभवी पुरुष हैं । बिना अनुभव वे ऐसा लिख सकते नहीं । अतः इनके पास जाना है और लाभ उठाना हैऐसा सोचकर मैं सेठजीके पास आया । उनके पास आनेके बाद फिर और जगह जानेकी मनमें नहीं आयी । उनसे बढ़कर मेरेको कोई दीखा नहीं । अतः फिर मैं कहीं नहीं गया । पहले मैं उनको ‘कल्याण’ के लेखकके रूपमें जानता था । उनका ‘गीताप्रेस’ से कोई सम्बन्ध हैइसका पता मेरेको नहीं था । उनके पास आनेके बाद पता लगा कि ‘गीताप्रेस’ इनका ही बनाया हुआ है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे




[*] आद्यं कृतयुग चान्तं तदन्येभ्यो विशिष्यते ॥
   अष्टाविशकलिश्चैव  शेषः  प्रावर्त्त  अन्यतः ।
                      (स्कन्दपुराण, माहेश्वर कुमारिका ४० । ७४-७५)

‘प्रथम सत्ययुग, अन्तिम सत्ययुग तथा अट्ठाईसवाँ कलियुगये अन्य युगोंसे कुछ विशिष्टता रखते हैं । शेष युगोंकी प्रवृत्ति औरोंके समान ही होती है ।’