(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीतामें रुचि मेरी पहलेसे ही थी । पूरी गीता याद थी ।
रुपये-पैसे रखना संवत् १९८७
में ही छोड़ दिया था । कहीं जाना नहीं, कोई चीज लेनी नहीं,
किसी चीजकी आवश्यकता नहीं, फिर पैसोंकी क्या जरूरत
है ! गीता हमें याद है । कोई पुस्तक पढ़नी हो तो पुस्तकालयमें
जाकर पढ़ लेगे । रोटी-कपड़ा जैसा मिल जाय, ले लेंगे । इस प्रकार इस तरफ लग गया । इसके बाद मेरेको बहुत बढ़िया-बढ़िया बातें मिलीं । फिर गीतापर ‘साधक-संजीवनी’ टीका
भी लिख दी । टीका लिखनेके बाद मनमें आयी तो ‘परिशिष्ट’ लिख दिया । अब गीतापर और भी
लिखनेकी मनमें आती है !
आप सबसे यह कहना है कि आप तत्परतासे साधनमें लग जाओ ।
मेरा मन करता है कि सभी भाई-बहन पारमार्थिक
उन्नतिमें रात और दिन लग जायँ । आपकी बड़ी भारी कृपा होगी ! नहीं
लगें तो लाचारी है, क्या करें ! पारमार्थिक
उद्देश्यवाले व्यक्ति मेरेको बहुत कम दीखते हैं ! अपने कल्याणकी
जोरदार इच्छा नहीं दीखती ! आप सच्चे हृदयसे लग जाओ तो मेरे चित्तमें
बहुत प्रसन्नता होगी ।
श्रोता‒शरीर मैं नहीं तथा मेरा
भी नहीं‒यह बात सत्संगमें तो खूब अच्छी
तरहसे समझमें आती है, पर व्यवहारमें यह बात जाग्रत्
नहीं रहती । आपने यह
भी कहा कि भगवान्को पुकारो, पर पुकारनेमें भी भीतरसे
व्याकुलता पैदा नहीं होती ।
ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिये
?
स्वामीजी‒प्रार्थना करनी चाहिये । ऐसा नहीं होनेमें
कारण है कि संसारके विषय जितने प्रत्यक्ष दीखते हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मनपर जितना विश्वास है, उतना शास्त्रपर विश्वास नहीं
है । इसलिये भगवान्से प्रार्थना करो । कम-से-कम, कम-से-कम ‘हम परमात्माके हैं’‒इतना भाव तो सत्संग करनेवाले
हरेकके भीतर रहना चाहिये । इसमें पाप बाधक नहीं हैं,
प्रत्युत आपमें लगनकी कमी बाधक है । अपनी लगन बढ़ाओ । मनुष्यमें यह विवेकशक्ति
है, जिससे वह सुखासक्तिका त्याग करके भगवान्में लग सकता है ।
मनुष्य ही ऐसा है, जो देवताओंसे भी बढ़कर है । देवता भोगोंमें
लगे हुए हैं; क्योंकि उनके यहाँ भोगोंकी भरमार है । नरकोंमें
जीव दुःखोंसे व्याकुल हैं । देवता सुखसे और नारकीय जीव दुःखसे भूले हुए हैं । मध्यम
दर्जेके मनुष्य ही हैं, जो सुखमें भी भूले हुए नहीं हैं और दुःखमें
भी भूले हुए नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानसे भूले हुए हैं । अज्ञान सत्संगसे मिटता है, मिट सकता है, और मिटा है
।
श्रोता‒भगवान्में अनन्त प्रेम है ।
वे तो प्रेमकी मूर्ति ही हैं । उनमें
प्रेमकी कमी तो है नहीं
। फिर
वे मनुष्यसे प्रेमकी इच्छा क्यों रखते हैं ?
स्वामीजी‒भगवान्में प्रेमकी कमी नहीं
है, पर प्रेम एक ऐसी विलक्षण चीज है
कि पेट तो भरता नहीं और वस्तु समाप्त होती नहीं ! कितनी ही बढ़िया चीज हो, चाहे तो पेट भर जाता है, चाहे वस्तु समाप्त हो जाती है,
पर प्रेममें ये दोनों ही बातें नहीं हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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