।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७४, सोमवार
वसंतपंचमी
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

गीतामें रुचि मेरी पहलेसे ही थी । पूरी गीता याद थी । रुपये-पैसे रखना संवत् १९८७ में ही छोड़ दिया था । कहीं जाना नहीं, कोई चीज लेनी नहीं, किसी चीजकी आवश्यकता नहीं, फिर पैसोंकी क्या जरूरत है ! गीता हमें याद है । कोई पुस्तक पढ़नी हो तो पुस्तकालयमें जाकर पढ़ लेगे । रोटी-कपड़ा जैसा मिल जाय, ले लेंगे । इस प्रकार इस तरफ लग गया । इसके बाद मेरेको बहुत बढ़िया-बढ़िया बातें मिलीं । फिर गीतापर ‘साधक-संजीवनी’ टीका भी लिख दी । टीका लिखनेके बाद मनमें आयी तो ‘परिशिष्ट’ लिख दिया । अब गीतापर और भी लिखनेकी मनमें आती है !

आप सबसे यह कहना है कि आप तत्परतासे साधनमें लग जाओ । मेरा मन करता है कि सभी भाई-बहन पारमार्थिक उन्नतिमें रात और दिन लग जायँ । आपकी बड़ी भारी कृपा होगी ! नहीं लगें तो लाचारी है, क्या करें ! पारमार्थिक उद्देश्यवाले व्यक्ति मेरेको बहुत कम दीखते हैं ! अपने कल्याणकी जोरदार इच्छा नहीं दीखती ! आप सच्चे हृदयसे लग जाओ तो मेरे चित्तमें बहुत प्रसन्नता होगी ।

श्रोताशरीर मैं नहीं तथा मेरा भी नहींयह बात सत्संगमें तो खूब अच्छी तरहसे समझमें आती है, पर व्यवहारमें यह बात जाग्रत् नहीं रहती आपने यह भी कहा कि भगवान्को पुकारो, पर पुकारनेमें भी भीतरसे व्याकुलता पैदा नहीं होती ऐसी स्थितिमें क्या करना चाहिये ?

स्वामीजीप्रार्थना करनी चाहिये । ऐसा नहीं होनेमें कारण है कि संसारके विषय जितने प्रत्यक्ष दीखते हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मनपर जितना विश्वास है, उतना शास्त्रपर विश्वास नहीं है । इसलिये भगवान्से प्रार्थना करो । कम-से-कम, कम-से-कम ‘हम परमात्माके हैं’इतना भाव तो सत्संग करनेवाले हरेकके भीतर रहना चाहिये । इसमें पाप बाधक नहीं हैं, प्रत्युत आपमें लगनकी कमी बाधक है । अपनी लगन बढ़ाओ । मनुष्यमें यह विवेकशक्ति है, जिससे वह सुखासक्तिका त्याग करके भगवान्में लग सकता है ।

मनुष्य ही ऐसा है, जो देवताओंसे भी बढ़कर है । देवता भोगोंमें लगे हुए हैं; क्योंकि उनके यहाँ भोगोंकी भरमार है । नरकोंमें जीव दुःखोंसे व्याकुल हैं । देवता सुखसे और नारकीय जीव दुःखसे भूले हुए हैं । मध्यम दर्जेके मनुष्य ही हैं, जो सुखमें भी भूले हुए नहीं हैं और दुःखमें भी भूले हुए नहीं हैं, प्रत्युत अज्ञानसे भूले हुए हैं । अज्ञान सत्संगसे मिटता है, मिट सकता है, और मिटा है ।

श्रोताभगवान्में अनन्त प्रेम है वे तो प्रेमकी मूर्ति ही हैं उनमें प्रेमकी कमी तो है नहीं फिर वे मनुष्यसे प्रेमकी इच्छा क्यों रखते हैं ?

स्वामीजीभगवान्में प्रेमकी कमी नहीं है, पर प्रेम एक ऐसी विलक्षण चीज है कि पेट तो भरता नहीं और वस्तु समाप्त होती नहीं ! कितनी ही बढ़िया चीज हो, चाहे तो पेट भर जाता है, चाहे वस्तु समाप्त हो जाती है, पर प्रेममें ये दोनों ही बातें नहीं हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे