।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताप्रेमस्वरूप भगवान्ने ही संसारका निर्माण किया है, फिर उनके बनाये हुए संसारमें अनन्त प्रकारके दुःख क्यों हैं, बुराई क्यों है ? उनमें बुराई नहीं है तो फिर हमारेमें बुराई कहाँसे गयी ?

स्वामीजीजितनी बुराई है, सब आपने सुखभोगसे पैदा की है । इसलिये आपपर जिम्मेवारी है । अगर भगवान्की की हुई बुराई होती तो जिम्मेवारी भगवान्पर होती । आप सुखकी इच्छाका त्याग कर दो तो बुराई मिट जायगी । इसमें भगवान् सहायता करनेके लिये तैयार हैं ।
आप किसी सुखसे तृप्त नहीं होते और दुःखसे घबराते हो, यह क्या है ? यह भगवान्का बुलावा है । भगवान् आपको अपनी तरफ खींच रहे हैं, इसलिये सुखसे आपकी तृप्ति नहीं होती और दुःखसे घबराहट होती है । परन्तु दुःखको आप मिटा नहीं सकते । दुःख भगवान्की कृपासे आता है । आपलोग मानें, चाहे न मानें, एक मार्मिक बात है कि दुःख आपका जितना उपकार करता है, उतना सुख उपकार करता ही नहीं, कर सकता ही नहीं ! सब-के-सब मनुष्य दुःखके ऋणी हैं । दुःखका ऋण कोई चुका सकता ही नहीं; क्योंकि सुख पैदा होते ही दुःख नहीं रहता ! इसलिये भगवान्की बड़ी कृपा होती है, तब दुःख आता है ! जो प्रतिकूलताके दुःखसे दुःखी होता है, वह दुःखके तत्त्वको नहीं जान सकता ! दुःखके तत्त्वको वही जान सकता है, जो दुःखके कारणकी खोज करता है । दुःख आनेपर सुखकी इच्छा करना ‘दुःखका भोग’ है और दुःखके कारणकी खोज करना ‘दुःखका प्रभाव’ है । दुःखका भोग जीवका पतन करनेवाला और दुःखका प्रभाव उन्नति करनेवाला है । दुःखके प्रभावसे मनुष्य जितना ऊँचा उठता है, उतना शास्त्रोंके ज्ञानसे नहीं उठता ।

केवल संसारका क्षणिक सुख ही दुःखका कारण है । गीतामें लिखा है

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय   न तेषु रमते बुधः ॥
                                        (गीता ५ । २२)

‘हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं । अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता ।’

सांसारिक सुखसे आपकी शक्ति क्षीण होती है, और पारमार्थिक सुखसे आपकी शक्ति बढ़ती हैयह नियम है । पारमार्थिक सुखसे अपार शक्ति बढ़ती है

यं लब्ध्वा चापरं लाभं  मन्यते  नाधिक ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
                                             (गीता ६ । २२)

‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’


सुखकी इच्छाके बिना दुःख होता ही नहीं । सुखकी इच्छा करनेसे दुःख मिटता ही नहीं, मिटेगा ही नहीं, मिट सकता ही नहीं । इसलिये दुःखके प्रभावको अपनाना है, दुःखके भोगको नहीं । फिर वास्तविक उन्नति होगी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे