(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒मिलन और विरह‒इन दोनोंमें
कौन-सा साधन श्रेष्ठ है ?
स्वामीजी‒विरह बहुत श्रेष्ठ है । परन्तु विरह
भगवान् देते हैं । सन्तोंकी वाणीमें आया है‒‘दरिया हरि किरपा करी
बिरहा दिया पठाय’ विरहसे बहुत उन्नति होती है । आप भगवान्में प्रेम करो तो विरह पैदा होगा । विरह पैदा हो तो समझो कि भगवान्ने भेजा है । आप हरदम भगवान्को याद करो, ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ पुकारो । सब काम ठीक
हो जायगा । आप कितने ही अयोग्य हों, योग्य हो जाओगे ।
श्रोता‒भगवान् जल्दी-से-जल्दी
दर्शन दें और आँखोंसे कभी ओझल ही न
हों‒इसका क्या उपाय है ?
स्वामीजी‒उपाय है‒प्रार्थना । आप हरदम
‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ
नहीं’ कहते रहो । सब काम ठीक हो जायगा । भगवान्की प्रार्थनासे जो लाभ होता है, वह अपने उद्योगसे नहीं होता । एकदम सच्ची,
निश्चित बात है !
हमलोगोंके भीतर एक बात जँची हुई है कि हरेक काम अभ्याससे
होगा । परन्तु वास्तवमें तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता । यह मार्मिक बात है और बहुत
बढ़िया बात है !
अभ्याससे एक नयी स्थिति पैदा होती है, जड़से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं
होता । यह मेरी अनुभव की हुई बात है । रस्सेके ऊपर चलनेके
लिये अभ्यास करना ही पड़ता है, पर दो और दो चार होते हैँ‒इसको जाननेमें अभ्यास होता ही नहीं । अभ्यास और चीज है, अनुभव और चीज है । अभ्याससे बोध नहीं होता.....नहीं होता.....नहीं होता ! अभ्याससे एक नयी स्थिति बनती है । तत्त्व
स्थितिसे अतीत है । परन्तु जिसने ज्यादा लोगोंका सत्संग किया
है, ज्यादा पुस्तकें पढ़ी हैं,
उसको यह बात समझनेमें कठिनाई होगी । इस बातका मैं भुक्तभोगी हूँ । मैंने काफी पढ़ाई की है और वर्षोंतक अभ्यास किया है, इसलिये
मेरेको इस बातका पता है ! मैंने व्याकरणका अभ्यास किया है,
काव्यका किया है, साहित्यका किया है, न्यायका किया है, योगका किया है, वेदान्तका किया है ! आचार्यतककी पढ़ाई की हुई है । यद्यपि
मैं अपनेको विशेष विद्वान् नहीं मानता, तथपि विद्याका अभ्यास
मैंने किया हुआ है । भीतरमें अभ्यासकी बात जँची होनेसे जल्दी
कल्याण नहीं होता ।
शरीर तुम नहीं हो, शरीर तुम्हारा नहीं है और शरीर तुम्हारे
लिये नहीं है‒इसका अभ्यास करो तो वर्ष बीत जायँगे, सफेद बाल हो जायँगे, पर बोध नहीं होगा । वास्तवमें कैसा
ही अन्तःकरण हो, बोध अभी इसी क्षण हो सकता है ! अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बोध होगा‒ये बातें ठगाईकी हैं
! वास्तवमें बोधके लिये अन्त:करण-शुद्धिकी जरूरत नहीं है,
प्रत्युत अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेदकी जरूरत है
। कितना ही अभ्यास करो, अहम् साथमें
रहेगा ही, कभी छूटेगा नहीं । अभ्याससे
अहंकार नहीं छूटता‒यह मार्मिक
बात है । अभ्याससे आप विद्वान् बन जाओगे, पर तत्त्वबोध नहीं होगा । जो चीज जैसी है, उसको वैसी
जान लेनेमें अभ्यास कैसा ? अभ्याससे एक नयी स्थिति बनेगी । तत्त्व
स्थितिसे अतीत है । अभ्याससे आप स्थितिसे अतीत नहीं होंगे, नहीं
होंगे, नहीं होंगे ! यह मेरे अनुभवकी बात
है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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