।। श्रीहरिः ।।




आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७४, बुधवार
अचलासप्तमी, रथसप्तमी
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोतामिलन और विरहइन दोनोंमें कौन-सा साधन श्रेष्ठ है ?

स्वामीजीविरह बहुत श्रेष्ठ है । परन्तु विरह भगवान् देते हैं । सन्तोंकी वाणीमें आया है‘दरिया हरि किरपा करी बिरहा दिया पठाय’ विरहसे बहुत उन्नति होती है । आप भगवान्में प्रेम करो तो विरह पैदा होगा । विरह पैदा हो तो समझो कि भगवान्ने भेजा है । आप हरदम भगवान्को याद करो, ‘हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ पुकारो । सब काम ठीक हो जायगा । आप कितने ही अयोग्य हों, योग्य हो जाओगे ।

श्रोताभगवान् जल्दी-से-जल्दी दर्शन दें और आँखोंसे कभी ओझल ही होंइसका क्या उपाय है ?

स्वामीजीउपाय हैप्रार्थना । आप हरदम ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’ कहते रहो । सब काम ठीक हो जायगा । भगवान्की प्रार्थनासे जो लाभ होता है, वह अपने उद्योगसे नहीं होता । एकदम सच्ची, निश्चित बात है !

हमलोगोंके भीतर एक बात जँची हुई है कि हरेक काम अभ्याससे होगा । परन्तु वास्तवमें तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता । यह मार्मिक बात है और बहुत बढ़िया बात है ! अभ्याससे एक नयी स्थिति पैदा होती है, जड़से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता । यह मेरी अनुभव की हुई बात है । रस्सेके ऊपर चलनेके लिये अभ्यास करना ही पड़ता है, पर दो और दो चार होते हैँइसको जाननेमें अभ्यास होता ही नहीं । अभ्यास और चीज है, अनुभव और चीज है । अभ्याससे बोध नहीं होता.....नहीं होता.....नहीं होता ! अभ्याससे एक नयी स्थिति बनती है । तत्त्व स्थितिसे अतीत है । परन्तु जिसने ज्यादा लोगोंका सत्संग किया है, ज्यादा पुस्तकें पढ़ी हैं, उसको यह बात समझनेमें कठिनाई होगी । इस बातका मैं भुक्तभोगी हूँ । मैंने काफी पढ़ाई की है और वर्षोंतक अभ्यास किया है, इसलिये मेरेको इस बातका पता है ! मैंने व्याकरणका अभ्यास किया है, काव्यका किया है, साहित्यका किया है, न्यायका किया है, योगका किया है, वेदान्तका किया है ! आचार्यतककी पढ़ाई की हुई है । यद्यपि मैं अपनेको विशेष विद्वान् नहीं मानता, तथपि विद्याका अभ्यास मैंने किया हुआ है । भीतरमें अभ्यासकी बात जँची होनेसे जल्दी कल्याण नहीं होता ।


शरीर तुम नहीं हो, शरीर तुम्हारा नहीं है और शरीर तुम्हारे लिये नहीं हैइसका अभ्यास करो तो वर्ष बीत जायँगे, सफेद बाल हो जायँगे, पर बोध नहीं होगा । वास्तवमें कैसा ही अन्तःकरण हो, बोध अभी इसी क्षण हो सकता है ! अन्तःकरण शुद्ध होनेसे बोध होगाये बातें ठगाईकी हैं ! वास्तवमें बोधके लिये अन्त:करण-शुद्धिकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेदकी जरूरत है । कितना ही अभ्यास करो, अहम् साथमें रहेगा ही, कभी छूटेगा नहीं । अभ्याससे अहंकार नहीं छूटतायह मार्मिक बात है । अभ्याससे आप विद्वान् बन जाओगे, पर तत्त्वबोध नहीं होगा । जो चीज जैसी है, उसको वैसी जान लेनेमें अभ्यास कैसा ? अभ्याससे एक नयी स्थिति बनेगी । तत्त्व स्थितिसे अतीत है । अभ्याससे आप स्थितिसे अतीत नहीं होंगे, नहीं होंगे, नहीं होंगे ! यह मेरे अनुभवकी बात है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे