(गत ब्लॉगसे आगेका)
पृथ्वी, जल, अग्नि आदि सब
भगवान्की प्रकृति है । चौदह भुवनोंमें, करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें अनन्तकोटि जीव हैं, वे सब भी
भगवान्की प्रकृति हैं । जड़ प्रकृति भी भगवान्का स्वरूप हुई और चेतन प्रकृति भी भगवान्का स्वरूप हुई
। जड़, चेतन और भगवान्‒तीनों मिलकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ हुआ । भगवान् वासुदेव ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम् बने । इन आठोंके सिवाय और संसारमें
क्या है ? अब प्रश्न उठता है कि इसका अनुभव कैसे हो ?
अपने-आपको भगवान्के चरणोंमें
समर्पित कर दें । समर्पित ऐसे करें कि मैं हूँ ही नहीं, मेरी
जगह भगवान् ही हैं । अपना अहम् अपनी सत्ता परमात्मासे अलग नहीं है । अपनी सत्ता छोड़कर
हम भगवान्के ही शरण हो सकते हैं, और किसीके
नहीं । इस प्रकार भगवान्के शरण होनेपर केवल भगवान् ही रहेंगे‒‘वासुदेव: सर्वम्’ । ऐसे महात्माको भगवान्ने अत्यन्त दुर्लभ बताया है‒‘स महात्मा
सुदुर्लभः’ । ऐसा सुदुर्लभ महात्मा आप सब बन सकते हैं । बस, भगवान्के चरणोंके शरण हो
जाओ । अपना कुछ भी मत रखो ।
श्रोता‒द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य)-के लिये जनेऊ लेना जरूरी क्यों है ?
स्वामीजी‒आप कितना ही धन कमाओ, पर टैक्स देना पड़ता
है, ऐसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य‒तीनोंके लिये यह टैक्स है । इस विषयमें शास्त्रमें एक नयी बात आयी है कि इसको
करनेसे कोई फल नहीं होगा, पर नहीं करनेसे दण्ड होगा !
यद्यपि हम ऐसा नहीं मानते । कारण कि कोई भी कर्म करे, उसका फल जरूर होता है ।
जनेऊ लेना बहुत जरूरी है । दो बार जन्म लेनेवालेको ‘द्विज’ कहते हैं । ब्राह्मण,
क्षत्रिय और वैश्य‒ये तीनों द्विज हैं । पक्षी
भी द्विज हैं; क्योंकि वह पहले अण्डेके रूपमें पैदा होता है,
फिर अण्डेके फूटनेसे पैदा होता है । ऐसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य पहले माता-पितासे पैदा होते हैं,
फिर जनेऊ लेनेपर गायत्रीसे पैदा होते हैं । जनेऊ न लेनेसे उनका ‘द्विज’
नाम नहीं होता । जहाँ पूजन करनेकी बात आती है, वहाँ ‘द्विज’ शब्द केवल ब्राह्मणके लिये होता है;
जैसे‒‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्’ (गीता १७ । १४) ।
गीताभवन (ऋषिकेश) -में सेठजी
(श्रीजयदयालजी गोयन्दका)-ने हिन्दू-संस्कृतिकी
रक्षाके लिये ही जनेऊ-संस्कार आरम्भ किया था । सेठजीने गीताप्रेस
बनाकर मामूली काम नहीं किया है ! बड़ा भारी काम किया है !
जोरसे आनेवाले कलियुगके आगे आड़ लगा दी ! उनके जानेके
बाद यह काम और तेज हुआ है ! पहले लगभग ६००-७०० टन कागज छपता था, अब लगभग ३३०० टन कागज छप रहा है
! सन्त-महात्माओंके जानेके बाद उनका प्रभाव ज्यादा होता है । कारण कि जबतक वे जीते
रहते हैं, तबतक उनके भाव संकुचित रहते हैं । परन्तु शरीर छोड़नेके
बाद उनके भाव बहुत व्यापक हो जाते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
|