(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒माताओं-बहनोंको गायत्री-मन्त्रका
जप करना चाहिये या नहीं ?
स्वामीजी‒बिल्कुल नहीं.....बिल्कुल नहीं.....बिल्कुल नहीं
!
श्रोता‒क्यों नहीं करना चाहिये ?
स्वामीजी‒क्योंकि इनको छूट दी गयी है । पतिके
घर जाना और रसोई बनाना ही इनके लिये अग्निहोत्र है[1] । आजकल अभिमान करते हैं कि हम गायत्रीका
जप करेंगे । अभिमानसे पतन होता है । नारदभक्तिसूत्रमें आया है‒‘ईश्वरस्याप्यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च’ (नारदभक्ति॰ २७) ‘ईश्वरका भी अभिमानसे
द्वेषभाव और दैन्यसे प्रियभाव है ।’ वे सोचते हैं कि जनेऊ लेनेसे हम बड़े हो जायँगे, पर वास्तवमें पतन होगा ।
श्रोता‒आवाज साफ सुनायी नहीं दे रही है !
स्वामीजी‒हम कहनेमें कपट तो करेंगे नहीं, सरलतासे बतायेंगे ।
अब सुनायी दे या न दे, यह आप जानें, आपका
काम जाने ! हमने देखा है कि विवाहमें तो (माइक्रोफोन, लाउडस्पीकर आदि) बढ़िया लायेंगे, पर सत्संगमें रद्दी लायेंगे ! सत्संगको रद्दी काम समझ
रखा है ! यह मैंने देखा है, मेरी बीती हुई
है, मैं जानता हूँ ! सत्संगको रद्दी समझोगे
तो फिर उसका महान् फल कैसे होगा ? आपका भाव गिर गया !
वस्तुओंका भाव गिर जाय तो दीवाला निकल जाता है ! इसलिये भाव ऊँचा होना चाहिये । सत्संगमें, भजन-ध्यानमें बढ़िया-से-बढिया चीज लाओ । बढ़िया-से-बढ़िया चीज वास्तवमें पारमार्थिक कार्यके लिये ही है ! पर आपलोगोंने पारमार्थिक कार्यको रद्दी समझ रखा है । यह मेरा वर्षोंका अनुभव
है ! दान-पुण्यमें लगायेंगे तो रद्दी चीज
लगायेंगे । थाली-गिलास लायेंगे तो ऐसे लायेंगे कि फूँकसे उड़ जाय
! अन्न लायेंगे तो खराब लायेंगे । छाता ऐसा लायेंगे कि वर्षा
होनेपर कपड़े काले हो जायँ !
श्रोता‒अगर यह कहें कि ‘हे प्रभो, मैं तेरा हूँ, मैं तेरा हूँ’ तो इतनेसे काम हो जायगा क्या ?
स्वामीजी‒केवल कहनेसे काम नहीं चलेगा
। भीतरसे भगवान्के हो जाओ तो उद्धार हो ही जायगा । नकली कहनेसे
कुछ नहीं होगा । भगवान्के यहाँ नकली नहीं चलती । आज सब चीजें नकली हैं । साधु भी नकली, गृहस्थ भी नकली,
ब्राह्मण भी नकली, क्षत्रिय भी नकली, वैश्य भी नकली, अदरख भी नकली, हल्दी
भी नकली, मिरचें भी नकली, आटा भी नकली !!
सब नकली-ही-नकली है !
असली चीज बहुत कम है । सत्संग करनेवालोंमें भी असली सत्संग करनेवाले
बहुत कम हैं, नकली ज्यादा हैं !!
यहाँ मैंने एक बात कही थी कि मैं पाँच-सात-दस वर्ष रह गया तो आपको परमात्माकी प्राप्ति बहुत सुगम बता दूँगा । अब आठ-दस वर्षसे ज्यादा हो गये, और वैसी बातें मेरेको मिली
हैं कि बहुत जल्दी उद्धार हो जाय, पर आपके मनमें ही नहीं है !
अगर पैसा पैदा करनेकी बात बताते तो पीछे पड़ जाते ! मेरे मनमें आती है कि कुछ व्यक्तियोंको इकट्ठा करके बात बतायें, पर आप लोगोंके मनमें आती ही नहीं ! असली लगन ही नहीं
है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
पतिसेवा
गुरौ वासो गृहार्थोऽदुग्निपरिक्रिया
॥
(मनुस्मृति २ । ६७)
‘स्त्रियोंका विवाह-संस्कार ही वैदिक संस्कार (यज्ञोपवीत), पतिसेवा ही गुरुकुल-निवास (वेदाध्ययन) और गृहकार्य
ही अग्निहोत्र-कर्म कहा गया है ।’
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