(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒कोई आदमी गलत काम करता हो तो क्या उसको हम भगवान्का विधान मानकर सहन कर लें ?
स्वामीजी‒अपनी शक्ति हो तो विरोध
करो । शक्ति नहीं हो तो क्या करोगे, बताओ ! क्या यह आपके अधीन है
? विदेशमें एक जगह युद्ध हो रहा था । वहाँ घोड़ेपर चढ़ी हुई एक
स्त्री कहती है कि ‘इस युद्धमें मेरी सम्मति नहीं है’ । इसके
सिवाय और क्या कर सकते हैं ? गीताप्रेसके एक ट्रस्टी थे‒मोहनलालजी पटवारी । वे कहते थे कि आपकी सम्मति यह है और हमारी सम्मति यह है,
पर हम राजी आपकी सम्मतिमें हैं ! अपनी सम्मति देनेका
सबको अधिकार है, इसलिये अपनी सम्मति देते हैं, पर राजी आपकी सम्मतिमें हैं । कितनी बढ़िया बात है ! शक्ति हो तो उलटफेर कर दो, नहीं तो राजी हो जाओ ।
परमात्मप्राप्तिको लोगोंने कठिन माना है, पर वास्तवमें वह अपना
घर है । अपने घर जानेमें क्या संकोच ? हम ईश्वरके अंश हैं । फिर
ईश्वरकी गोदमें जानेमें संकोचकी क्या बात है ? परमात्माको प्राप्त करना अपने असली घर जाना है । वह घर कहाँ है
? जहाँ आप बैठे हो, वहीं है ! जबतक आप परमात्माको नहीं पहचानते,
तबतक आप मुसाफिरीमें हैं । परमात्माके घरको पहचान लोगे तो फिर उस घरको
छोड़कर जा सकते ही नहीं । उसको छोड़नेकी किसीकी ताकत नहीं ! छोड़कर
कहाँ जायगा ?
नीतिमें एक वचन आता है‒
शतं विहाय भोक्तव्यं सहस्त्रं स्नानमाचरेत्
।
लक्षं विहाय दातव्यं कोटिं त्यक्त्वा
हरिं स्मरेत् ॥
‘सौ काम छोड़कर भोजन करना चाहिये, हजार
काम छोड़कर स्नान करना चाहिये, लाख काम छोड़कर दान करना चाहिये
और करोड़ काम छोड़कर भगवान्का स्मरण करना चाहिये ।’
तात्पर्य है कि करोड़ काम बिगड़ते हों तो बिगड़ने दो, पर भगवान्का स्मरण नहीं छोड़ना चाहिये । अतः भगवान्का स्मरण करना
सबसे मुख्य रहा ! वह नहीं करोगे तो जन्म-मरण कैसे छूटेगा ? इसके बिना मनुष्यजन्मका क्या मतलब
हुआ ? विचार करो, क्या आपने करोड़ काम छोड़कर भगवान्का स्मरण किया है ? क्या आपने भगवान्के स्मरणको ऐसी मुख्यता दी है ? पारमार्थिक उन्नतिके
लिये आपने कितने काम छोड़े हैं ? आपने इतने वर्ष सत्संग
किया, पर सत्संगका आदर कितना किया है ? कोई पूछे कि आज सत्संगमें आये नहीं, तो कहेंगे कि आनेवाले
ही थे कि जरूरी काम पड़ गया ! आज जरूर आना ही था, पर वकीलसे मिलना था, वहाँ चले गये ! आज आना ही था, पर बैठे-बैठे नींद
आ गयी ! इसका तात्पर्य हुआ कि कोई काम नहीं हो, निरर्थक समय हो तो सत्संग करें !! सत्संग सबसे रद्दी
हुआ ! अन्य काम मुख्य हुए, सत्संग गौण हुआ । पर विचार यह करते
हैं कि हम इतने वर्षोंसे सत्संग करते हैं ! आप कैसे कह सकते हैं
कि हम इतने वर्षोंसे लगे हैं, अभीतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं
हुई ! कहनेका अधिकार ही नहीं है । आप
सत्संगको जितनी मुख्यता दोगे, उतना लाभ जरूर होगा । हम जितना आदर करते हैं, उसकी अपेक्षा
भगवान्की कृपा विशेष है !
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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