(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒शास्त्रविहित कर्तव्य
कर्म करें या भगवान्का स्मरण करें ?
स्वामीजी‒इसका तात्पर्य कर्तव्य कर्म छोड़नेमें
नहीं है, प्रत्युत भगवान्के स्मरणको सबसे अधिक मुख्यता देनेमें है । संसारके
जितने भी काम हैं, सब-के-सब एक दिन बिगड़ेंगे ही, आप चाहे
कितना ही सुधार कर लो ! पर भगवान्का स्मरण कभी बिगड़ेगा नहीं । संसारका काम सुधर गया तो भी बिगड़ गया,
बिगड़ गया तो भी बिगड़ गया ! वह तो बिगड़ा हुआ ही
है । भगवत्प्राप्ति कर लो तो सब काम ठीक हो जायगा । मनुष्यजन्म सफल हो जायगा । सब कर्तव्योंका मूल कर्तव्य है‒भगवान्का स्मरण करना । भगवान्के स्मरणके आगे सब कर्तव्य कर्म गौण हैं । आप
स्वयं विचार करो, कहनेसे बात समझमें नहीं आती ।
आप कर्तव्य कर्मका बहाना लगाते हो, पर वास्तवमें
अपनी आयुका नाश कर रहे हो ! आपने कर्तव्यको समझा ही नहीं । असली
कर्तव्य वह है, जिससे संसारसे ऊँचा उठ जाय । कर्मयोगसे मनुष्य संसारसे ऊँचा उठ जाता
है । क्या आप कर्तव्य कर्म करनेसे संसारसे ऊँचा उठ गये ? क्या पैसोंमें,
बच्चोंमें, स्त्री आदिमें आपका मन नहीं जाता ?
क्या पैसोंके लिये झूठ-कपट नहीं करते ?
कर्तव्य कर्म करनेसे मनुष्य संसारसे ऊँचा उठ जाता
है । उसको शान्ति मिल जाती है ।
श्रोता‒कोई बीमार हो तो क्या उसकी सेवा छोड़कर भगवान्का भजन करना चाहिये ?
स्वामीजी‒मैं भगवान्की सेवा करता हूँ‒ऐसा समझकर बीमारकी सेवा करो तो क्या बाधा लगी ? घरका
काम भी भगवान्का काम समझकर करो । भगवान् कहते हैं‒
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि
ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व
मदर्पणम् ॥
(गीता ९ ।
२७)
‘हे कुन्तीपुत्र ! तू जो
कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ
यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है,
वह सब मेरे अर्पण कर दे ।’
श्रोता‒माताओ-बहनोंको शिवलिंगकी पूजा करनी चाहिये या नहीं
?
स्वामीजी‒नहीं करनी चाहिये । एक विधि होती है, एक प्रेम होता है ।
प्रेमसे लड़कियोंने शंकरका पूजन किया तो भगवान् प्रकट हो गये ! ऐसा शिवपुराण और स्कन्दपुराणमें आता है । जहाँ भाव
होता है, वहाँ विधि-निषेध नहीं होता ।
श्रोता‒माताओं-बहनोंको गायत्री-मन्त्र
बोलना चाहिये या नहीं ?
स्वामीजी‒नहीं बोलना चाहिये । जिसका जनेऊ नहीं
है, उस ब्राह्मणको भी गायत्री-मन्त्र बोलनेका अधिकार नहीं है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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