।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७४, मंगलवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताजैसे पहले वर्णमाला सीखते हैं तो पहले धीरे-धीरे समझमें आता है, फिर पीछे ठीकसे पढ़ लेते हैं, ऐसे ही ‘मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है’यह बात पीछे अनुभवमें आयेगी या तत्काल अनुभवमें सकती है ?

स्वामीजीतत्काल भी अनुभवमें आ सकती है और धीरे-धीरे भी आ सकती है, दोनों बातें हैं । जिसके भीतर तीव्र जिज्ञासा है, जिसको तत्त्वज्ञानके बिना चैन नहीं पड़ता, रोटी नहीं भाती, पानी नहीं भाता, नींद नहीं आती, उसको तत्काल अनुभव हो जायगा । परन्तु जो आरामसे रहता है और साधन करता है, उसको देरी लगेगी ।

श्रोता‘मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है’यह देहाभिमान सुगमतासे कैसे छूटे ?

स्वामीजीपहले यह समझो कि देह क्या है ?

छिति  जल  पावक गगन समीरा ।
पंच रचित  अति  अधम  सरीरा ॥
प्रगट सो तनु  तव   आगे   सोवा ।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा ॥
                          (मानस, किष्किन्धा ११ । २-)

(श्रीरामजीने तारासे कहा‒) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायुइन पाँच तत्त्वोंसे यह अत्यन्त अधम शरीर रचा गया है । वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है । फिर तुम किसके लिये रो रही हो ?

जितने शरीर हैं, जितने अनन्त, करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं, सब-के-सब पांचभौतिक हैं । किसीमें पृथ्वी-तत्त्वकी प्रधानता है, किसीमें जल-तत्त्वकी प्रधानता है, किसीमें अग्नि-तत्त्वकी प्रधानता है और किसीमें वायु-तत्त्वकी प्रधानता है । देवताओंके शरीरमें अग्नि-तत्त्वकी प्रधानता है, भूत-प्रेतके शरीरमें वायु-तत्त्वकी प्रधानता है, मनुष्यशरीरमें पृथ्वी-तत्त्वकी प्रधानता है, पर वे सब हैं पांचभौतिक । अनन्त सृष्टियोमें आपकी चीज रत्तीभर भी नहीं है, तिल-जितनी भी नहीं है, केश-जितनी भी नहीं है ! कारण कि वे सब पांचभौतिक (जड़) हैं और आप परमात्माके अंश (चेतन) हैं ! आप परमात्माके अंश होकर भौतिक शरीरको अपना मानते हो, जो सर्वथा असम्भव है ! इसलिये यह मान लो कि जो भौतिक चीज है, वह अपनी नहीं है और हम उसके नहीं हैं । पांचभौतिकको सभीने नीचा माना है ।

भगवान्को पुकारना बहुत बढ़िया साधन है । देहाध्यास न छूटे तो भक्तिमें लग जाओ, भगवान्से प्रार्थना करो । ज्ञानके मार्गमें देहाध्यास छोड़ना ही पड़ेगा । देहाभ्यास छोड़े बिना ज्ञानका मार्ग नहीं चल सकता, नहीं चल सकता, नहीं चल सकता ! परन्तु भगवान्की भक्ति देहाध्याससे नहीं अटकती । ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । भगवान् ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों दे देंगे

तेषां  सततयुक्तानां   भजतां   प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोग तं   येन   मामुपयान्ति ते ॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                      (गीता १० । १०-११)

‘उन नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है ।’

‘उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूप (होनेपन)‒में रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे