(गत ब्लॉगसे आगेका)
आचार्योंने दो तरहका क्रम माना है । पहले कर्मयोग, फिर भक्तियोग,
फिर ज्ञानयोग‒यह शंकराचार्यका मत है । पहले कर्मयोग,
फिर ज्ञानयोग, फिर भक्तियोग‒यह रामानुजाचार्यका मत है । मैं भी इसी बातको कहता हूँ । परन्तु मैं रामानुजाचार्यका
मत मानता हूँ, ऐसा नहीं है । मैंने पढ़ाई शांकरमतकी की है । मेरा अध्ययन भी शांकरमतका
है । परन्तु गीताको, पुराणोंको देखनेसे रामानुजका मत बढ़िया लगता
है । यह मैं अपनी बात कहता हूँ, आपके ऊपर लादता नहीं हूँ कि आप भी ऐसा मानें । मेरा
आग्रह नहीं है । आपको जैसा जँचे, वैसा मानो । मेरेमें भी पहले
ज्ञानकी मुख्यता थी; क्योंकि वही पढ़ाई की थी । परन्तु गीताका
पाठ करनेसे ‘मथानिया’ में यह बात आयी कि भक्ति बहुत विलक्षण है । उसके बाद मेरा मत
बदला है । यह मैंने व्यक्तिगत बात कही है । मैं किसी आचार्यके मतको गलत नहीं कहता ।
सभी मत श्रेष्ठ हैं । सभी आचार्य बड़े दयालु हुए हैं । उनको जैसा समझमें आया,
वैसा लिखा है, और वैसा करनेसे तत्त्वज्ञान होता
है, ऐसा मैं मानता हूँ । मेरी आचार्योंपर श्रद्धा, पूज्यभाव है । मैं किसीका खण्डन नहीं करता हूँ । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों विषयोंमें मेरा अध्ययन है
।
ऊँची-से-ऊँची भक्ति है
! गीताभरमें ‘सर्वगुह्यतमम्’
पद एक ही बार आया है (गीता १८ । ६४) । इसमें
भगवान्ने भक्तिको सबसे अत्यन्त गोपनीय बताया है । इसका ज्ञानपरक
अर्थ भी मैंने पढ़ा है । परन्तु मुझे भक्तिका मार्ग सबसे ठीक दीखता है । कर्मयोग और
ज्ञानयोगसे मुक्ति होती है, पर उनमें अत्यन्त सूक्ष्म एक अहंकार
रहता है । यह सूक्ष्म अहंकार मुक्तिमें बाधक नहीं होता, पर मतभेद
करनेवाला होता है । परन्तु प्रेमभक्तिमें वह सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता‒
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई
।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
(मानस,
उत्तर॰ ४९ । ३)
प्रेमभक्तिमें मतभेद नहीं रहता । इसलिये प्रेमभक्ति सबसे
उत्तम मानी गयी है । आजकल ज्ञानमार्गको मुख्य माना जाता है, ज्ञानका प्रचार विशेष
है, पर बोधवान् आदमी मेरेको दीखता नहीं ! जिसको तत्त्वज्ञान हो गया हो, ऐसा ज्ञानमार्गसे सिद्ध
हुआ पुरुष मेरे देखनेमें आया नहीं ! मुक्त होनेके बाद भी राग-द्वेष, काम-क्रोध रहते हैं‒ऐसा वेदान्तकी पुस्तकों (पंचदशीमें)-में आता है ! परन्तु जिसके भीतर राग-द्वेष, काम-क्रोध होते हैं,
वह मुक्त कैसे हुआ ? राग-द्वेष तभीतक रहते हैं, जबतक शरीरमें अध्यास है । शरीरमें
मैंपन नहीं होगा तो राग-द्वेष कैसे रहेंगे ? पंचदशीमें यहाँतक आया है कि बोध होनेपर भी वासनाक्षय और मनोनाश नहीं होता ।
परन्तु यह बात मेरेको जँचती नहीं ! बोध होनेपर वासनाक्षय भी हो
जायगा, मनोनाश भी हो जायगा ।
श्रोता‒प्रणामकी महिमा
क्या है ?
स्वामीजी‒प्रणामकी महिमा इतनी है कि परमात्माकी
प्राप्ति हो जाय !
एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो
दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।
दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी
न पुनर्भवाय ॥
(महाभारत,
शान्ति॰ ४७ । ९२)
‘भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम
किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता
है । इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः संसारमें
जन्म होता है, पर श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला अर्थात् उनकी
शरणमें जानेवाला फिर संसार-बन्धनमें नहीं आता ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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