।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७४, बुधवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

आचार्योंने दो तरहका क्रम माना है । पहले कर्मयोग, फिर भक्तियोग, फिर ज्ञानयोगयह शंकराचार्यका मत है । पहले कर्मयोग, फिर ज्ञानयोग, फिर भक्तियोगयह रामानुजाचार्यका मत है । मैं भी इसी बातको कहता हूँ । परन्तु मैं रामानुजाचार्यका मत मानता हूँ, ऐसा नहीं है । मैंने पढ़ाई शांकरमतकी की है । मेरा अध्ययन भी शांकरमतका है । परन्तु गीताको, पुराणोंको देखनेसे रामानुजका मत बढ़िया लगता है । यह मैं अपनी बात कहता हूँ, आपके ऊपर लादता नहीं हूँ कि आप भी ऐसा मानें । मेरा आग्रह नहीं है । आपको जैसा जँचे, वैसा मानो । मेरेमें भी पहले ज्ञानकी मुख्यता थी; क्योंकि वही पढ़ाई की थी । परन्तु गीताका पाठ करनेसे ‘मथानिया’ में यह बात आयी कि भक्ति बहुत विलक्षण है । उसके बाद मेरा मत बदला है । यह मैंने व्यक्तिगत बात कही है । मैं किसी आचार्यके मतको गलत नहीं कहता । सभी मत श्रेष्ठ हैं । सभी आचार्य बड़े दयालु हुए हैं । उनको जैसा समझमें आया, वैसा लिखा है, और वैसा करनेसे तत्त्वज्ञान होता है, ऐसा मैं मानता हूँ । मेरी आचार्योंपर श्रद्धा, पूज्यभाव है । मैं किसीका खण्डन नहीं करता हूँ । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोगतीनों विषयोंमें मेरा अध्ययन है ।

ऊँची-से-ऊँची भक्ति है ! गीताभरमें ‘सर्वगुह्यतमम्’ पद एक ही बार आया है (गीता १८ । ६४) । इसमें भगवान्ने भक्तिको सबसे अत्यन्त गोपनीय बताया है । इसका ज्ञानपरक अर्थ भी मैंने पढ़ा है । परन्तु मुझे भक्तिका मार्ग सबसे ठीक दीखता है । कर्मयोग और ज्ञानयोगसे मुक्ति होती है, पर उनमें अत्यन्त सूक्ष्म एक अहंकार रहता है । यह सूक्ष्म अहंकार मुक्तिमें बाधक नहीं होता, पर मतभेद करनेवाला होता है । परन्तु प्रेमभक्तिमें वह सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता

प्रेम भगति जल बिनु रघुराई ।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥
                         (मानस, उत्तर ४९ । ३)

प्रेमभक्तिमें मतभेद नहीं रहता । इसलिये प्रेमभक्ति सबसे उत्तम मानी गयी है । आजकल ज्ञानमार्गको मुख्य माना जाता है, ज्ञानका प्रचार विशेष है, पर बोधवान् आदमी मेरेको दीखता नहीं ! जिसको तत्त्वज्ञान हो गया हो, ऐसा ज्ञानमार्गसे सिद्ध हुआ पुरुष मेरे देखनेमें आया नहीं ! मुक्त होनेके बाद भी राग-द्वेष, काम-क्रोध रहते हैंऐसा वेदान्तकी पुस्तकों (पंचदशीमें)-में आता है ! परन्तु जिसके भीतर राग-द्वेष, काम-क्रोध होते हैं, वह मुक्त कैसे हुआ ? राग-द्वेष तभीतक रहते हैं, जबतक शरीरमें अध्यास है । शरीरमें मैंपन नहीं होगा तो राग-द्वेष कैसे रहेंगे ? पंचदशीमें यहाँतक आया है कि बोध होनेपर भी वासनाक्षय और मनोनाश नहीं होता । परन्तु यह बात मेरेको जँचती नहीं ! बोध होनेपर वासनाक्षय भी हो जायगा, मनोनाश भी हो जायगा ।

श्रोताप्रणामकी महिमा क्या है ?

स्वामीजीप्रणामकी महिमा इतनी है कि परमात्माकी प्राप्ति हो जाय !

एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।
दशाश्वमेधी  पुनरेति  जन्म   कृष्णप्रणामी  न  पुनर्भवाय ॥
                                 (महाभारत, शान्ति ४७ । ९२)

‘भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देनेवाला होता है । इसके सिवाय प्रणाममें एक विशेषता है कि दस अश्वमेध करनेवालेका तो पुनः संसारमें जन्म होता है, पर श्रीकृष्णको प्रणाम करनेवाला अर्थात् उनकी शरणमें जानेवाला फिर संसार-बन्धनमें नहीं आता ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे