।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
  फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७४, गुरुवार
मैं नहीं, मेरा नहीं 


(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताक्या लडकीको माँ-बापके पैर छूकर प्रणाम करना चाहिये ?

स्वामीजीजहाँतक बने, पिताको कन्यासे पैर छुआकर प्रणाम नहीं कराना चाहिये । अपनी कन्याको भगवती देवीका स्वरूप समझना चाहिये ।

देहाभिमानको मिटानेके लिये भगवद्गीतामें कहा है

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र   न   मुह्यति ॥
                                             (गीता २ । १३)

‘देहधारीके इस मनुष्यशरीरमें जैसे बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, ऐसे ही दूसरे शरीरकी प्राप्ति होती है । उस विषयमें धीर मनुष्य मोहित नहीं होता ।’

बाल्यावस्थासे युवावस्था आती है और युवावस्थासे वृद्धावस्था आती है तो क्या कोई चिन्ता करता है ? इसी तरह वृद्धावस्थाके बाद दूसरे शरीरमें बाल्यावस्था आ जाती है । अतः जैसे जवान होनेपर ‘मैं बालक हूँ’इस तरह बालकपनेका अभिमान छूट जाता है, और बूढ़ा होनेपर ‘मैं बालक हूँ अथवा मैं जवान हूँ’यह अभिमान छूट जाता है, ऐसे ही देहाभिमान छूट जाना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि बालक, जवान अथवा वृद्ध होनेपर जीवात्मा एक ही रहा । जैसे अवस्था बदलती है, ऐसे ही शरीर बदल जाता है । जैसे अवस्थाओंके बदलनेपर जीवात्मा वही रहता है, ऐसे ही शरीरोंके बदलनेपर भी जीवात्मा वही रहता है । इसलिये एक शरीरमें आग्रह नहीं रहना चाहिये; क्योंकि कितना ही आग्रह रखो, शरीर तो छूटेगा ही । अगर मनुष्य जीता रहे तो उसका बालकपन छूटेगा और जवानी आयेगी, जवानी छूटेगी और बुढ़ापा आयेगा । इसी तरह बुढ़ापा छूटेगा और अगले जन्ममें बालकपना आयेगा । इसलिये एक शरीरमें अपनी स्थिति नहीं माननी चाहिये; क्योंकि एक शरीरमें स्थिति रहेगी नहीं । गीताने कपडेका दृष्टान्त दिया है

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
                     नवानि  गृह्णाति  नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि  विहाय जीर्णा-
                 न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥
                                             (गीता २ । २२)

‘मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है ।’

दूसरे कपड़े पहननेपर आप दूसरे थोड़े ही हो जाते हो । आपको कोई बालक कह दे तो आप खुद कहते हो कि ‘मैं कोई बच्चा थोड़े ही हूँ !’ इसलिये शरीरका अभिमान छोड़ देना चाहिये । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड आदि सभी विकार देहाभिमानसे ही पैदा होते हैं‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’देहाभिमान मिट जाय तो सभी विकार मिट जाते हैं । इसलिये देहाभिमानका त्याग करना सब भाई-बहनोंका खास काम है । कारण कि यह शरीर तो रहेगा नहीं, पक्की बात है । जो नहीं रहेगा, उसका अभिमान छोड़नेमें क्या बाधा है ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे