(गत ब्लॉगसे आगेका)
संसारको देखना ही हो तो ऊँची दृष्टिसे देखो । देखनेमें
हम स्वतन्त्र हैं, परतन्त्र नहीं हैं । मनुष्य ऊँची-से-ऊँची दृष्टिसे भी देख सकता है और नीची-से-नीची दृष्टिसे भी । जब देखनेमें हम स्वतन्त्र हैं तो फिर देखनेमें कमी क्यों
रखें ? मनके लड्डूमें खाँड कम क्यों !
घी भी कम क्यों ! इसमें कौन-सा खर्च होता है ! इसको आप कठिन मत समझो । ऐसी दृष्टि
मनुष्य नहीं करेंगे तो क्या पशु-पक्षी करेंगे ? मनुष्यके सिवाय ऐसी दृष्टि करनेकी ताकत देवताओंमें भी नहीं
है !
संसारको परमात्मदृष्टिसे देखेंगे तो
इससे हमारा कल्याण होगा तथा दुनियाका भी बड़ा उपकार होगा ! सबका लाभ
होगा, नुकसान किसीका भी नहीं होगा ।
सत्संग करनेसे अपनेमें विलक्षणता आती है‒ऐसा हरेकको स्वीकार
करना ही पड़ता है । सत्संग करनेसे स्वभावमें फर्क पड़ता है, यह
मेरा अनुभव है । मनुष्य रुपयोंसे बड़ा नहीं होता, प्रत्युत स्वभावसे बड़ा होता है, और स्वभाव बदलता है सत्संगसे । लाखों-करोड़ों रुपये हो जायँ तो भी कंजूसी नहीं मिटती, पर सत्संगसे
कंजूसी मिट जाती है । सत्संग करनेसे दृष्टि बदल जाती है । दृष्टि बदलनेसे सब-
की-सब सृष्टि बदल जाती है ।
सत्संगसे फर्क जरूर पड़ता है, तभी मैं आपको बातें
बतानेमें मेहनत करता हूँ ! नहीं तो क्यों मेहनत करूँ ?
बोले बिना मैं रह नहीं सकता‒ऐसी बात नहीं है ।
मैं चुपचाप भी रह सकता हूँ ! जब मैं (संवत्
१९८९-१९९० में) वृन्दावनमें था,
तब एक सन्त बोले कि तुम इतना बोलनेवाले चुप कैसे रह जाते हो ?
पहले मैं बहुत बोलता था । आठ घण्टा, दस घण्टा,
पन्द्रह घण्टा बोलता (व्याख्यान देता) था ! अतः सत्संगसे स्वभाव बदलता है, यह मैंने अनुभव किया है । मेरा तो ऐसा विश्वास है कि सत्संग करनेसे आपका जीवन
बदल जायगा । सत्संग सुननेसे आदमीका स्वभाव बदलता है, शान्ति मिलती
है, आनन्द मिलता है, दुःख मिटता है,
सन्ताप मिटता है । रुपये ज्यादा होनेसे फर्क नहीं पड़ता । अधिक पैसेवाला
खर्च नहीं कर सकता‒‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ' (मानस, बाल॰ १८० । १; लंका॰ १०२ । १) । जिसके पास अरबों रुपये हैं, वह लाख-दो लाख रुपये भी खर्च नहीं कर सकता । परन्तु सत्संग करनेसे फर्क पड़ता ही है,
कोई माने, चाहे न माने । अपने स्वभावको बदलनेमें
सब स्वतन्त्र हैं, कोई परतन्त्र नहीं है । सत्संगसे एक पैसा मिलता
नहीं, पर स्वभाव शद्ध हो जाता है‒यह नियम
है । धनी आदमियोंका चेहरा बढ़िया नहीं होता । चेहरा देखते ही भय लगता है ! परन्तु सत्संग करनेवालेको देखनेसे शान्ति मिलती है
! इसलिये कहा है‒‘संत समागम करिये भाई और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढिहि
राम दुहाई ॥’ । भगवान् जब कृपा करते हैं, तब सत्संग देते हैं । भगवद्गीता और सन्त‒ये दोनों भगवान्की कृपासे मिलते हैं, उद्योगसे अथवा भाग्यसे नहीं मिलते । जिसपर भगवान्
कृपा करते हैं, उसको ये मिलते हैं, हरेकको
नहीं मिलते ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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