(गत ब्लॉगसे आगेका)
एक बार रामजीने वसिष्ठजीसे कहा कि आप ब्रह्मका वर्णन करें
तो वसिष्ठजी चुप हो गये । रामजीने पुनः कहा कि महाराज, ब्रह्मका वर्णन करें
तो वसिष्ठजी बोले कि मैंने ब्रह्मका वर्णन कर दिया !
चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः
शिष्या गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं
शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥
(दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्
१२)
‘क्या ही आश्चर्य है ! वटवृक्षके
नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु विराजमान हैं । गुरुके मौन व्याख्यानसे शिष्योंके सब
संशय मिट गये हैं !’
शिष्य तो तत्त्वप्राप्तिके लिये भटकते-भटकते बूढ़े हो गये,
पर गुरु तत्त्वमें स्थित है, इसलिये कभी बूढ़ा होता
ही नहीं ! कारण कि तत्त्वमें काल है ही नहीं, फिर बूढ़ा कैसे हो !
श्रोता‒मोक्ष क्या होता है
और वह मरनेके बाद ही
मिलता है या पहले भी
मिल सकता है ?
स्वामीजी‒पहले भी मिल सकता है । मरनेके बाद मिले, इसका क्या पता ?
मोक्ष होनेपर राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता, कर्म आदि सब खत्म हो जाते हैं । ‘मोक्ष’ नाम छूटनेका
है और ‘प्रेम’ नाम मिलनेका है । संसारसे सर्वथा छूटनेका नाम ‘मुक्ति’ है और परमात्मासे
मिलनेका नाम ‘भक्ति’ है ।
वास्तवमें बन्धन है नहीं । जो नहीं होता, वही मिटता है । जो
होता है, वह मिटे कैसे ? असत्का भाव नहीं होता और सत्का कभी अभाव नहीं होता‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । बनावटी मिट जाता है और जो वास्तवमें है, वह रह जाता है
।
श्रोता‒संसार क्षणभंगुर
है, पर हमारी
इसमें भूलसे सद्बुद्धि हो गयी है, इसलिये संसारसे वैराग्य होना बड़ा कठिन
हो गया है । अब
संसारका आकर्षण कैसे मिटे ?
स्वामीजी‒भगवान्को ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । हमसे पूछो तो हमें सत्संगसे लाभ हुआ है । सत्संगसे लाभ होता ही
है, यह हमारी जँची हुई बात है । सत्संगसे मुफ्तमें चीज मिलती
है, कोई दाम चुकाना नहीं पड़ता !
संत बिसुद्ध मिलहिं परि तेही ।
चितवहिं राम कृपा करि जेही
॥
(मानस,
उत्तर॰ ६९ । ४)
जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये ।
(विनय॰ १३६ । १०)
सत्संगमें समय तो लौकिक खर्च होता है, पर धन मिलता है अलौकिक
! संसारमें तो बाजरा बोओ तो बाजरा होता है, मक्का बोओ तो मक्का होता है, पर सत्संगमें अनित्य चीज
बोओ तो नित्यकी खेती होती है ! मरणधर्मा चीजसे अमरताकी प्राप्ति
होती है‒‘मर्त्येनाप्नोति मामृतम्’ (श्रीमद्भा॰ ११ । २९ । २२) !
सत्संग करो और हरदम ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो‒ये दो उपाय हैं । एक दूसरी बात यह है कि वैराग्यवान्का संग करो । वैराग्यवान्के संगसे वैराग्य होता है ।
वैराग्यवान्के पास रहो, उनकी आज्ञाका पालन
करो । फिर अपने-आप वैराग्य होता है, करना
नहीं पड़ता ।
‘हे मेरे नाथ ! मैं
आपको भूलूँ नहीं’‒इस एकसे सब हो जायगा ! ज्ञान, वैराग्य, त्याग सब आ जायँगे
। सब दैवी सम्पत्ति आ जायगी । ‘दैवी सम्पत्ति’ में ‘देव’ शब्द परमात्माका वाचक है, देवताका नहीं । देवता
तो भोगी होते हैं । दैवी सम्पत्ति मोक्ष देनेवाली होती है‒‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ (गीता १६ । ५) ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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