।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०७५, शुक्रवार
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक बार रामजीने वसिष्ठजीसे कहा कि आप ब्रह्मका वर्णन करें तो वसिष्ठजी चुप हो गये । रामजीने पुनः कहा कि महाराज, ब्रह्मका वर्णन करें तो वसिष्ठजी बोले कि मैंने ब्रह्मका वर्णन कर दिया !

चित्रं  वटतरोर्मूले    वृद्धाः    शिष्या   गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः ॥
                                     (दक्षिणामूर्तिस्तोत्रम् १२)

‘क्या ही आश्चर्य है ! वटवृक्षके नीचे वृद्ध शिष्य और युवा गुरु विराजमान हैं । गुरुके मौन व्याख्यानसे शिष्योंके सब संशय मिट गये हैं !

शिष्य तो तत्त्वप्राप्तिके लिये भटकते-भटकते बूढ़े हो गये, पर गुरु तत्त्वमें स्थित है, इसलिये कभी बूढ़ा होता ही नहीं ! कारण कि तत्त्वमें काल है ही नहीं, फिर बूढ़ा कैसे हो !

श्रोतामोक्ष क्या होता है और वह मरनेके बाद ही मिलता है या पहले भी मिल सकता है ?

स्वामीजीपहले भी मिल सकता है । मरनेके बाद मिले, इसका क्या पता ? मोक्ष होनेपर राग-द्वेष, हर्ष-शोक, चिन्ता, कर्म आदि सब खत्म हो जाते हैं । ‘मोक्ष’ नाम छूटनेका है और ‘प्रेम’ नाम मिलनेका है । संसारसे सर्वथा छूटनेका नाम ‘मुक्ति’ है और परमात्मासे मिलनेका नाम ‘भक्ति’ है ।

वास्तवमें बन्धन है नहीं । जो नहीं होता, वही मिटता है । जो होता है, वह मिटे कैसे ? असत्का भाव नहीं होता और सत्का कभी अभाव नहीं होता‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) बनावटी मिट जाता है और जो वास्तवमें है, वह रह जाता है ।

श्रोतासंसार क्षणभंगुर है, पर हमारी इसमें भूलसे सद्बुद्धि हो गयी है, इसलिये संसारसे वैराग्य होना बड़ा कठिन हो गया है अब संसारका आकर्षण कैसे मिटे ?

स्वामीजीभगवान्‌को ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । हमसे पूछो तो हमें सत्संगसे लाभ हुआ है । सत्संगसे लाभ होता ही है, यह हमारी जँची हुई बात है । सत्संगसे मुफ्तमें चीज मिलती है, कोई दाम चुकाना नहीं पड़ता !

संत बिसुद्ध  मिलहिं परि तेही ।
चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥
                            (मानस, उत्तर ६९ । ४)

                    जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये ।
                                                                  (विनय १३६ । १०)

सत्संगमें समय तो लौकिक खर्च होता है, पर धन मिलता है अलौकिक ! संसारमें तो बाजरा बोओ तो बाजरा होता है, मक्का बोओ तो मक्का होता है, पर सत्संगमें अनित्य चीज बोओ तो नित्यकी खेती होती है ! मरणधर्मा चीजसे अमरताकी प्राप्ति होती है‘मर्त्येनाप्नोति मामृतम्’ (श्रीमद्भा ११ । २९ । २२) !

सत्संग करो और हरदम ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारोये दो उपाय हैं । एक दूसरी बात यह है कि वैराग्यवान्का संग करो । वैराग्यवान्के संगसे वैराग्य होता है । वैराग्यवान्के पास रहो, उनकी आज्ञाका पालन करो । फिर अपने-आप वैराग्य होता है, करना नहीं पड़ता ।


हे मेरे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं’‒इस एकसे सब हो जायगा ! ज्ञान, वैराग्य, त्याग सब आ जायँगे । सब दैवी सम्पत्ति आ जायगी । ‘दैवी सम्पत्ति’ में ‘देव’ शब्द परमात्माका वाचक है, देवताका नहीं । देवता तो भोगी होते हैं । दैवी सम्पत्ति मोक्ष देनेवाली होती है‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ (गीता १६ । ५) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे