।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७५, गुरुवार
                   मैं नहीं, मेरा नहीं 



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोताआनन्दमें कमी हो जाती है तो क्या मार्ग सही नहीं है ?

स्वामीजीमार्ग तो ठीक है, पर सुख लेनेसे साधन खर्च हो जाता है ! जैसे पाँच रुपये कमाये और चार रुपये खर्च कर दिये तो एक रुपया ही बाकी रहा ! ऐसे ही आप राजी हो जाते हो तो वह खर्च हो जाता है । राजी होनेसे उस साधनका भोग होता है, भोग होनेसे साधन खर्च हो जाता है, और खर्च होनेसे पूँजी कम हो जाती है । फिर वैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं ।

अपने साधनका भोग भी मत करो और दूसरोंको कहो भी मत । दूसरोंको कहना भी भोग है । साधनमें अपना उद्योग न मानकर भगवान्‌की कृपा मानो ।

श्रोतामन, बुद्धि, अहम्‌ भगवत्स्वरूप हैंयह बात हमारी समझमें कैसे आये ?

स्वामीजीयह बात समझमें नहीं आती, मान लो । अपने माँ-बापको कोई समझ नहीं सकता । उनको मानना ही पडता है । यह मानना समझसे भी तेज है !

आप परा प्रकृति हो और मन-बुद्धि आदि अपरा प्रकृति है । अपरा प्रकृति आपकी नहीं है । यह परमात्माकी है (गीता ७ । ४-) । अपरा प्रकृतिको अपना मानना ही बाधा है ।

श्रोताअपने बच्चोंको श्रेष्ठ और भगवद्धक्त कैसे बनायें ?

स्वामीजीबच्चोंको अपना मानते होयह बाधा है । उन्हें भगवान्‌को भेंट कर दो । बच्चा मर जाय तो क्या उसको जिला दोगे आप ? अपने साथ रख लोगे ? उसको अपना मानना ही गलती है ।

जो चीज भगवान्‌के अर्पित करते हैं, वह प्रसाद हो जाती है । लखपति-करोड़पति आदमी भी प्रसादके एक कणसे राजी हो जाते हैं ! क्या वे मिठाईके भूखे हैं ? वे भगवान्‌की चीजसे राजी होते हैं, मिठाईसे नहीं । बच्चा अपना नहीं है, भगवान्‌का हैऐसा मान लो तो वह ठीक हो जायगा । वह मर जाय तो ठाकुरजीका, जी जाय तो ठाकुरजीका; अच्छा है तो ठाकुरजीका, मन्दा है तो ठाकुरजीका । जैसा है, ठाकुरजीका है । ठाकुरजीकी चीजमें आपकी क्या पंचायती ! ऐसे ही आप मनको अपना मानते रहोगे तो मन कभी शुद्ध नहीं होगा । ममतासे ही वस्तु अशुद्ध होती है । अगर शुद्ध करना चाहते हो तो अपनापन छोड़ो ।

श्रोतायोगवासिष्ठमें आया है कि ज्ञान होनेके बाद सिद्ध पुरुष सर्वव्यापकताका अनुभव करता है, वह आकाशवत् हो जाता है, उसकी वृत्ति ब्रह्माकार हो जाती है इसका थोड़ा विस्तारसे विवेचन कीजिये


स्वामीजीज्ञान होनेपर वृत्ति रहती ही नहीं । ब्रह्माकार वृत्ति साधककी होती है, सिद्धकी नहीं । ज्ञान होनेपर जगत्‌ नहीं रहता, सब ब्रह्मरूप ही होता है । जगत्‌ रहे तो ब्रह्माकार वृत्तिकी जरूरत है । जगत्‌ है ही नहीं तो ब्रह्माकार वृत्तिकी क्या जरूरत है? शंकराचार्यजीने साधकके लिये लिखा है‘वृत्तिं ब्रह्ममयीं कृत्वा पश्येत् ब्रह्ममयं जगत्‌’ अर्थात् वृत्तिको ब्रह्ममयी करके जगत्को देखे । जगत्‌ है, तभी तो जगत्को देखेगा । वास्तवमें जगत्‌ रहता ही नहीं, केवल परमात्मतत्व ही रहता है । वह परमात्मतत्त्व अनिर्वचनीय है । उसका विवेचन नहीं होता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहींमेरा नहीं’ पुस्तकसे