(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒आनन्दमें कमी हो जाती
है तो क्या मार्ग सही नहीं है ?
स्वामीजी‒मार्ग तो ठीक है, पर सुख लेनेसे साधन
खर्च हो जाता है ! जैसे पाँच रुपये कमाये और चार रुपये खर्च कर
दिये तो एक रुपया ही बाकी रहा ! ऐसे ही आप राजी हो जाते हो तो
वह खर्च हो जाता है । राजी होनेसे उस साधनका भोग होता है, भोग
होनेसे साधन खर्च हो जाता है, और खर्च होनेसे पूँजी कम हो जाती
है । फिर वैसी वृत्तियाँ नहीं रहतीं ।
अपने साधनका भोग भी मत करो और दूसरोंको
कहो भी मत । दूसरोंको कहना भी भोग है । साधनमें अपना उद्योग न मानकर भगवान्की कृपा
मानो ।
श्रोता‒मन, बुद्धि,
अहम् भगवत्स्वरूप हैं‒यह बात हमारी समझमें कैसे आये ?
स्वामीजी‒यह बात समझमें नहीं आती, मान लो । अपने माँ-बापको कोई समझ नहीं सकता । उनको मानना ही पडता है । यह मानना समझसे भी तेज
है !
आप परा प्रकृति हो और मन-बुद्धि आदि अपरा प्रकृति
है । अपरा प्रकृति आपकी नहीं है । यह परमात्माकी है (गीता ७ ।
४-५) । अपरा प्रकृतिको अपना मानना ही बाधा
है ।
श्रोता‒अपने बच्चोंको श्रेष्ठ और भगवद्धक्त
कैसे बनायें ?
स्वामीजी‒बच्चोंको अपना मानते हो‒यह बाधा है । उन्हें
भगवान्को भेंट कर दो । बच्चा मर जाय तो क्या उसको जिला दोगे आप ? अपने साथ रख लोगे ? उसको अपना मानना ही गलती है ।
जो चीज भगवान्के अर्पित करते हैं, वह प्रसाद हो जाती
है । लखपति-करोड़पति आदमी भी प्रसादके एक कणसे राजी हो जाते हैं
! क्या वे मिठाईके भूखे हैं ? वे भगवान्की
चीजसे राजी होते हैं, मिठाईसे नहीं । बच्चा अपना नहीं है,
भगवान्का है‒ऐसा मान लो तो वह ठीक हो जायगा ।
वह मर जाय तो ठाकुरजीका, जी जाय तो ठाकुरजीका; अच्छा है तो ठाकुरजीका, मन्दा है तो ठाकुरजीका । जैसा
है, ठाकुरजीका है । ठाकुरजीकी चीजमें आपकी क्या पंचायती !
ऐसे ही आप मनको अपना मानते रहोगे तो मन कभी शुद्ध नहीं होगा । ममतासे
ही वस्तु अशुद्ध होती है । अगर शुद्ध करना चाहते हो तो अपनापन छोड़ो ।
श्रोता‒योगवासिष्ठमें आया है कि ज्ञान
होनेके बाद सिद्ध पुरुष सर्वव्यापकताका अनुभव करता है, वह आकाशवत् हो जाता है, उसकी वृत्ति ब्रह्माकार हो जाती
है । इसका थोड़ा विस्तारसे
विवेचन कीजिये ।
स्वामीजी‒ज्ञान होनेपर वृत्ति रहती ही नहीं ।
ब्रह्माकार वृत्ति साधककी होती है, सिद्धकी
नहीं । ज्ञान होनेपर जगत् नहीं रहता, सब ब्रह्मरूप ही होता है । जगत् रहे
तो ब्रह्माकार वृत्तिकी जरूरत है । जगत् है ही नहीं तो ब्रह्माकार वृत्तिकी क्या जरूरत
है? शंकराचार्यजीने साधकके लिये लिखा है‒‘वृत्तिं ब्रह्ममयीं कृत्वा पश्येत् ब्रह्ममयं जगत्’ अर्थात् वृत्तिको ब्रह्ममयी करके जगत्को देखे । जगत्
है, तभी तो जगत्को देखेगा । वास्तवमें
जगत् रहता ही नहीं, केवल परमात्मतत्व ही रहता है । वह परमात्मतत्त्व
अनिर्वचनीय है । उसका विवेचन नहीं होता ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मैं नहीं, मेरा नहीं’ पुस्तकसे
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