।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि–
अधिक ज्येष्ठ अष्टमी, वि.सं.-२०७५, मंगलवार
 अनन्तकी ओर     



गायोंका पालन, रक्षा करनेका बड़ा भारी पुण्य है । आजकल तो ज्यादा पुण्य है ! आजकल खेती करनेवाले भी गाय नहीं रखते ! खेतीसे गायका पालन होता है और गायसे खेती बढिया होती है । खेतमें गायें बैठें, गोबर-गोमूत्र करें तो खेत कभी पुराना नहीं होता, नया-का-नया रहता है ।

कितने दुःखकी बात है कि लोग घरकी गायको, बछड़ा-बछड़ीको यों ही छोड़ रहे हैं ! आपको कोई रोटी न दे और घरसे निकाल दे तो क्या दशा होगी ? आप तो माँग भी सकते हो, पर गाय बेचारी माँग सकती नहीं, बोल सकती नहीं ! खानेके लिये खेतमें जाती है तो वहाँ मार पड़ती है ! अब वह करे क्या ? इसलिये आप गायका पालन नहीं करोगे तो आपको दण्ड होगा ।

आप भगवान्‌से तो कृपा चाहते हो, पर पशुओंपर कृपा करते नहीं, तो आप कृपा पानेके अधिकारी नहीं हो । जो पशुओंको मारता है, मांस खाता है, वह कृपाका पात्र नहीं होता । आप अपनेसे कमजोरको मार देते हो और खा जाते हो, तो आपको भी कोई मार दे तो आप रोनेके, पश्‍चात्ताप करनेके, शिकायत करनेके भी पात्र नहीं हो ।

अर्जुन और कर्णके युद्धके समय जब अपने रथका चक्‍का निकालने कर्ण रथसे नीचे उतर गया, तब अर्जुनको बाण चलाते देख कर्ण उनसे बोला कि तुम शस्‍त्र और शास्‍त्र दोनोंको जाननेवाले हो, फिर मेरेपर बाण कैसे चलाते हो ? अर्जुनने बाण चलाना बन्द कर दिया । तब भगवान्‌ने अर्जुनको बाण चलानेकी आज्ञा दी तो उन्होंने बाण चलाना आरम्भ कर दिया; क्योंकि अर्जुनने गीतामें कह दिया था‒‘करिष्ये वचनं तव’ अब आप जैसा कहो, वैसा करूँगा’ (गीता १८ । ७३) । भगवान् कर्णसे बोले‒‘आग लगानेवाला, विष देनेवाला, हाथमें शस्‍त्र लेकर मारनेको तैयार, धन हरनेवाला, जमीन छीननेवाला और स्‍त्रीका हरण करनेवाला‒ये छहों ही आततायी हैं । आते हुए आततायीको बिना ही विचारे मार देना चाहिये । आततायीको मारनेसे मारनेवालेको कोई भी दोष (पाप) नहीं लगता ।[*] तुमने तो ये छहों काम किये हैं !’ सुनकर कर्ण चुप हो गया ।

जो दूसरोंकी रक्षा नहीं करता, पर अपनी रक्षा चाहता है, वह बेईमान है । आप अपनेसे छोटोंकी रक्षा तो करते नहीं, और बड़ोंसे अपनी रक्षा चाहते हो‒यह अन्याय है । भगवान्‌से अपनी रक्षा चाहते हो तो भगवान् रक्षा करेंगे नहीं । आप छोटोंकी रक्षा करोगे तो बड़े भी आपकी रक्षा करेंगे । आप छोटोंकी रक्षा नहीं करोगे तो आपकी रक्षा कौन करेगा और क्यों करेगा ?



[*] अग्‍निदो   गरदश्‍चैव शस्‍त्रपाणिर्धनापहः ।
   क्षेत्रदारापहर्ता  च  षडेते   ह्याततायिनः ॥
   आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन् ।
   नाततायिवधे  दोषो  हन्तुर्भवति कश्‍चन ॥
                                                  (वसिष्ठस्मृति ३ । १९-२०)

अग्‍निदत्त  विषदत्त  नर,  क्षेत्र  दार  धन  हार ।
 बहुरि बकारत शस्‍त्र गहि, अवध वध्य षटकार ॥
                                              (पांडवयशेंदुचंद्रिका १० । १७)