।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
शुद्ध ज्येष्ठ तृतीया, 
                 वि.सं.-२०७५, शनिवार
 अनन्तकी ओर     


अब स्वाभाविक ऐसा विचार आता है कि जगह-जगह जानेसे हमारेको भी परिश्रम होता है और लोगोंको भी परिश्रम देता हूँ इसलिये एक जगह बैठ जायँ और केवल भगवान्‌की बात ही करें । लोग पूछें और उनको मार्मिक बातें बतायें । सुनना-सुनाना बहुत हो गया । सुनाते हुए कई वर्ष हो गये । बहुत बातें सुनायीं । मैं चाहता हूँ कि आपका जीवन एकदम बदल जाय । आप सब-के-सब सन्त-महात्मा हो जायँ । घरमें बैठे ही साधु हो जायँ । ऐसे आप हो जायँ‒यह मेरे हाथकी बात नहीं है, पर बातें ऐसी मनमें आतीं हैं । मेरे मनमें उत्साह आता है । सत्संगके विषयमें मेरेको थकावट नहीं होती । शरीर ज्यादा परिश्रम नहीं सह सकता, पर मनमें उत्साह कम नहीं है ।

आप सच्‍चे हृदयसे परमात्मामें लग जायँ । आपको केवल इतनी ही बात जाननेकी जरूरत है कि परमात्मा है’ । परमात्मा कैसा है, सगुण है कि निर्गुण है, साकार है कि निराकार है, द्विभुज है कि चतुर्भुज है या सहस्रभुज है‒यह जाननेकी जरूरत नहीं, पर वह है जरूर । जो है, उसी परमात्माका मैं अंश हूँ ।

दो ही बातें हैं‒‘है’ और नहीं’ । परमात्मा है’ और संसार नहीं’ है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) । वह परमात्मा सबका है । वह पुण्यात्मा-से-पुण्यात्माका भी है और पापी-से-पापीका भी है, ज्ञानी-से-ज्ञानीका भी है और मूर्ख-से-मूर्खका भी है । उसकी कृपा सबपर बराबर है‒सब पर मोहि बराबरि दाया’ (मानस, उत्तर ८७ । ४) । परन्तु उस कृपाको कोई कम पकड़ता है, कोई ज्यादा पकड़ता है, कोई नहीं पकड़ता । सूर्य एक है, पर ठीकरीमें, काँचमें और आतशी शीशेमें उसकी किरणोंका अलग-अलग असर होता है । एक माँके अनेक बालक होते हैं तो सब बालकोंका स्वभाव तो अलग-अलग होता है, पर माँ अलग-अलग नहीं होती, प्रत्युत एक ही होती है । इसी तरह भगवान् सबके हैं ।

भक्ति दो तरहकी होती है‒साधनभक्ति और साध्यभक्ति (प्रेमलक्षणा भक्ति) । साधनभक्ति नौ प्रकारकी होती है‒

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
 अर्चनं  वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
                                           (श्रीमद्भा ७ । ५ । २३)

भगवान्‌के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण, उनका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन तथा उनमें दासभाव, सखाभाव और आत्मसमर्पण‒यह नौ प्रकारकी भक्ति है ।’


साधनभक्तिके बाद साध्यभक्ति प्राप्त होती है । साधनभक्तिमें तो अहंकार रहता है, पर साध्यभक्तिमें अहंकार नहीं रहता । इसलिये साध्यभक्तिमें मतभेद नहीं होता । परन्तु तत्त्वज्ञान होनेपर सूक्ष्म अहंकार रहता है, जो जन्म-मरण देनेवाला, बन्धनकारक तो नहीं होता, पर मतभेद करनेवाला होता है । द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि मतभेद बिना अहंकारके नहीं हो सकते । आचार्योंमें तो केवल (राग-द्वेषरहित) मतभेद होता है, पर उनके अनुयायियोंमें मतभेदके कारण लड़ाई होती है ।