।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.–२०७५, शनिवार
        करणसापेक्ष-करणनिरपेक्ष साधन
और करणरहित साध्य



‘योग’ निषेधमें ही होता है‒

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
                                                 (गीता ६ । २३)

‘जिसमें दुःखोंके संयोगका वियोग (संसारका निषेध) है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।’

परन्तु ‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) ‘समताको योग कहा जाता है’यह विधि है । जो संसारकी सत्ता मानते हैं, उनको संसारमें विषमता दीखती है । इसलिये उनकी दृष्टिको विषम संसारसे हटाकर समरूप परमात्माकी तरफ करनेके लिये ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है । विधिमें करण साथमें रहता है, इसीलिये समतामें अन्तःकरणकी स्थिति बतायी गयी है‒‘येषां साम्ये स्थितं मनः’ (गीता ५ । १९)

विधिमें ‘मैं-पन’ साथमें रहनेसे साधन सिद्ध होनेमें देरी लगती है । जैसे, ‘मैं ब्रह्म हूँ’यह विधि है । यह अहंग्रह उपासना है, बोध नहीं । कारण कि मैंपनमें ब्रह्म नहीं है और ब्रह्ममें मैंपन नहीं है । अतः मैंपन केवल कल्पना है । ब्रह्मका तो अनुभव है और संसारकी प्रतीति है; परन्तु मैंपनका न अनुभव है, न प्रतीति है, प्रत्युत यह केवल अज्ञानीकी मान्यता है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७)

प्रकृति और प्रकृतिका कार्यमात्र प्रकाश्य है और परमात्मा प्रकाशक हैं । प्रकाश्य और प्रकाशक‒इन दोनोंमें ही मैंपन नहीं है, फिर मैंपन कहाँ रहा ? तात्पर्य है कि मैंपन केवल कल्पित है । अगर मैंपनका निषेध कर दिया जाय तो तत्काल सिद्धि हो जाती है‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१)


विधिकी अपेक्षा निषेध श्रेष्ठ और बलवान् है । परन्तु जिनके भीतर उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व है, उनको निषेध मुख्य नहीं दीखता, प्रत्युत विधि मुख्य दीखती है कि अमुक आदमीने इतना दान किया, इतने तीर्थ किये, इतने व्रत-उपवास किये आदि । इसलिये वे विधिको तो ग्रहण करते हैं, पर निषेधको टाल देते हैं । उनकी यह मान्यता रहती है कि विधि करनेसे ही उन्नति होगी । वास्तवमें निषेधकी जितनी आवश्यकता है उतनी विधिकी आवश्यकता नहीं है । विधि करनेमें कमी रह सकती है, पर निषेध करनेमें विधि स्वतःसिद्ध हो जाती है तथा उसमें कोई कमी भी नहीं रहती ।