‘योग’ निषेधमें ही होता है‒
तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्
।
(गीता ६ । २३)
‘जिसमें दुःखोंके संयोगका
वियोग (संसारका निषेध) है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।’
परन्तु ‘समत्वं
योग उच्यते’
(गीता २ । ४८) ‘समताको योग कहा जाता है’‒यह विधि है । जो संसारकी सत्ता मानते हैं, उनको संसारमें विषमता दीखती है । इसलिये उनकी दृष्टिको
विषम संसारसे हटाकर समरूप परमात्माकी तरफ करनेके लिये ‘समत्वं
योग उच्यते’ कहा गया है । विधिमें करण साथमें रहता
है, इसीलिये समतामें अन्तःकरणकी स्थिति बतायी गयी है‒‘येषां साम्ये स्थितं मनः’ (गीता ५ । १९) ।
विधिमें ‘मैं-पन’ साथमें रहनेसे साधन सिद्ध होनेमें देरी
लगती है । जैसे, ‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह विधि है । यह अहंग्रह उपासना है, बोध नहीं । कारण कि मैंपनमें ब्रह्म नहीं है और ब्रह्ममें मैंपन नहीं है । अतः
मैंपन केवल कल्पना है । ब्रह्मका तो अनुभव है और संसारकी प्रतीति है; परन्तु मैंपनका न अनुभव है, न प्रतीति है, प्रत्युत यह केवल अज्ञानीकी मान्यता
है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) ।
प्रकृति और प्रकृतिका कार्यमात्र प्रकाश्य
है और परमात्मा प्रकाशक हैं । प्रकाश्य और प्रकाशक‒इन दोनोंमें ही मैंपन नहीं है, फिर मैंपन कहाँ रहा ? तात्पर्य है कि मैंपन केवल कल्पित है । अगर मैंपनका निषेध कर दिया जाय तो तत्काल
सिद्धि हो जाती है‒‘निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति’ (गीता २ । ७१) ।
विधिकी अपेक्षा निषेध श्रेष्ठ
और बलवान् है । परन्तु जिनके भीतर उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व है, उनको निषेध मुख्य नहीं दीखता, प्रत्युत विधि मुख्य दीखती है कि अमुक आदमीने इतना दान किया, इतने तीर्थ किये, इतने व्रत-उपवास किये आदि । इसलिये वे विधिको तो ग्रहण करते हैं, पर निषेधको टाल देते हैं । उनकी यह मान्यता रहती है कि
विधि करनेसे ही उन्नति होगी । वास्तवमें निषेधकी जितनी आवश्यकता है उतनी विधिकी आवश्यकता
नहीं है । विधि करनेमें कमी रह सकती है, पर निषेध करनेमें विधि स्वतःसिद्ध हो जाती है तथा उसमें कोई कमी भी नहीं रहती ।
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