६. कर्तापन-भोक्तापनका निषेध
मात्र क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती
हैं । प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है । वह किसी भी अवस्था (सर्ग-प्रलय, महासर्ग-महाप्रलय) में क्षणमात्र भी अक्रिय नहीं रहती
। प्रकृतिमें होनेवाली क्रियाको भगवान्ने गीतामें अनेक प्रकारसे बताया है; जैसे‒सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं
(१३ । २९); सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंके द्वारा होती
हैं; अतः गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं (३ । २७-२८, १४ । २३); गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं (१४ । १९); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं (५
। ९); स्वभाव ही बरत रहा है (५ । १४); सम्पूर्ण कर्मोंकी सिद्धिमें पाँच हेतु हैं‒अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव (१८ । १३-१४) । इस प्रकार क्रियाओंको चाहे
प्रकृतिसे होनेवाली कहें, चाहे प्रकृतिके कार्य गुणोंसे होनेवाली
कहें, चाहे इन्द्रियोंसे होनेवाली कहें, वास्तवमें एक ही बात है । एक ही बातको अलग-अलग प्रकारसे
कहनेका तात्पर्य यह है कि स्वयं (चेतन) किसी भी क्रियाका
किंचिन्मात्र भी कर्ता नहीं है । जैसे प्रकृति कभी अक्रिय रहती ही नहीं, ऐसे ही स्वयंमें कभी क्रिया होती ही
नहीं । परन्तु
जब स्वयं प्रकृतिके अंश अहम्के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है अर्थात् अहम्को अपना
स्वरूप मान लेता है, तब वह स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें होनेवाली क्रियाओंका कर्ता अपनेको
मानने लगता है‒‘अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३ । २७) । जैसे कोई मनुष्य चलती हुई रेलगाड़ीमें
बैठा है, चल नहीं रहा है तो भी रेलगाड़ीके सम्बन्धसे वह अपनेको चलनेवाला
मान लेता है और कहता है कि ‘मैं जा रहा हूँ ।’ ऐसे ही स्वयं जब क्रियाशील प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध
मानने लगता है, तब वह कर्ता न होते हुए भी अपनेको कर्ता
मान लेता है । अपनेको कर्ता माननेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियासे सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनक ‘कर्म’ बन जाती है । कर्मसे बन्धन होता है‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’ (संन्यासोपनिषद् २ । ९८, महा॰ शान्ति॰ २४१ । ७) ।
कर्म करना और कर्म न करना‒ये
दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं । अतः प्रकृतिका सम्बन्ध होनेपर चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह बैठना, खड़ा होना, मौन होना, सोना, मूर्छित होना, श्रवण-मनन-निदिध्यासन करना, ध्यान करना, समाधि लगाना आदि क्रियाएँ भी ‘कर्म’ ही हैं । इसलिये भगवान्ने शरीर, वाणी और मनसे होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंको ‘कर्म’ माना है‒‘शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म
प्रारभते नरः ।’
(गीता १८ । १५) तथा शरीर, वाणी और मनकी शुद्धिके लिये शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपका वर्णन किया है (१७ । १४‒१६) । इसी
तरह गीतामें चौथे अध्यायके चौबीसवेंसे तीसवें श्लोकतक जिन यज्ञोंका वर्णन आया है तथा
वेदोंमें जिन यज्ञोंका वर्णन हुआ है, उन सबको कर्मजन्य माना गया है‒‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान्’ (४ । ३२) ।
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