जबतक साधकमें अपने सुख, आराम, मान, बड़ाई आदिकी कामना है,
तबतक उसका व्यक्तित्व नहीं मिटता और व्यक्तित्व मिटे बिना तत्त्वसे अभिन्नता नहीं
होती ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
जब हमारे अन्तःकरणमें किसी प्रकारकी कामना नहीं रहेगी, तब
हमें भगवत्प्राप्तिकी भी इच्छा नहीं करनी पड़ेगी, प्रत्युत भगवान् स्वयं प्राप्त
हो जायँगे ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
संसारकी कामना पशुताका और भगवान्की कामनासे मनुष्यताका
आरम्भ होता है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
‘मेरे मनकी हो जाय’‒इसीको कामना कहते हैं । यह कामना ही
दुःखका कारण है । इसका त्याग किये बिना कोई सुखी नहीं हो सकता ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
मुझे सुख कैसे मिले‒केवल इसी चाहनाके
कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे, अपने
स्वरूपसे और अपने इष्ट (भगवान्)से विमुख हो जाता है और नाशवान् संसारके सम्मुख
हो जाता है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न
पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
कामनाओंके त्यागमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ
हैं । परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं
है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं,
त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों
साधुता लिप्त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
कामनामात्रसे कोई पदार्थ नहीं मिलता, अगर मिलता भी है तो
सदा साथ नहीं रहता‒ऐसी प्रत्यक्ष बात होनेपर भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही
है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करतें
हैं और मृत्यु तभी कष्टमय होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो ती उसे पूरी करनेका प्रयत्न
करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो
मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं
और न मृत्युसे बचाव ही होता है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं
है और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों सम्पूर्ण दुःखोंके कारण
हैं ।
❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇ ❇❇❇
‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे
|