भगवान्के समान कोई भी नहीं है । अर्जुन भगवान्से कहते
हैं‒
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो-
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥
(गीता ११/४३)
‘हे अनुपम प्रभाववाले प्रभो ! तीनों लोकोंमें
आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो कैसे हो सकता है ।’
ऐसे सर्वोपरि भगवान्को प्राप्त करनेके लिये
हमारे भीतर उत्कट अभिलाषा होनी चाहिये । वे
कितने मधुर हैं । जब वे हाथोंमें वंशी
लेकर त्रिभंगीरूपमें खड़े होते हैं तो कितने प्यारे लगते हैं । उनमें कितना आकर्षण
है ! कितनी प्रियता है ! साधक यदि थोडा भी उनका ध्यान करे तो विह्वल हो जाय । उसकी
वृत्ति संसारकी तरफ जा ही न सके ।
‘नारायण’ बिना मोल बिकी हों याकी नैक हसन में ।
मोहन
बसि गयो मेरे
मन में ॥
वे प्रभु यदि थोड़ा-सा भी मुस्करा दें तो आपका सब कुछ समाप्त
हो जायेगा; शेष कुछ भी नहीं बचेगा । आपको कुछ नहीं करना पड़ेगा । प्रेम, ज्ञान,
मुक्ति आदिका उसके सम्मुख कोई मूल्य नहीं । सन्तोंने कहा है‒
चाहै तू योग करि भृकुटी-मध्य ध्यान धरि,
चाहै नाम रूप मिथ्या जानिकै निहारि लै ।
निर्गुन, निर्भय, निराकार ज्योति व्याप रही,
ऐसो तत्त्वज्ञान निज मन में तू धारि लै ॥
‘नारायन’ अपने कौ आप
ही बखान करि,
मोतें, वह भिन्न नहीं, या विधि पुकारी लै ।
जौलौं तोहि नंद कौ कुमार नाहिं दृष्टि पर्यो,
तौलौं तू भलै ही बैठि ब्रह्म को विचारि लै ॥
उस नन्दकुमारमें इतना आकर्षण है कि एक बार उसके दृष्टिगोचर
होनेपर फिर ब्रह्म-विचार करनेकी शक्ति ही नहीं रहती । ऐसे
प्रभुके रहते हुए हम नाशवान् एवं दुःख देनेवाले सांसारिक पदार्थोंमें फँसे हुए
हैं और फँस ही नहीं रहे हैं उनकी माँग कर रहे हैं । मान-बड़ाई, आराम, निरोगता,
सुख-सुविधा, धन-सम्पत्ति आदि अनेक प्रकारके भोग्य पदार्थोंको चाहते हैं‒यह बड़ी
भारी बाधा है ।
यदि भगवत्प्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत न भी हो तो आप घबरायें
नहीं । भगवान् कहते हैं‒‘व्यवसायात्मिकाबुद्धिरेकेह’
(गीता २ । ४१) ‘निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही
होती है’ । अतएव आप यही दृढ़ निश्चय कर लें कि हम तो भगवान्की तरफ ही
चलेंगे । यदि केवल भगवान्की तरफ चलनेकी इस अभिलाषाको ही
विचारपूर्वक जाग्रत रखा जाय तो यह अभिलाषा अपने-आप उत्कट हो जायगी । इसका
कारण यह है कि प्रभुकी अभिलाषा सही है और संसारकी अभिलाषा गलत है । हम भी
(स्वरूपतः) अविनाशी है । परमात्मा भी अविनाशी है और परमात्माकी अभिलाषा भी अविनाशी
है । परन्तु संसार और संसारकी अभिलाषा‒दोनों ही नाशवान् हैं । परमात्मविषयक अभिलाषा यदि थोड़ी-सी भी जाग्रत हो
जाय तो वह बड़ा भारी काम करती है ।
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