एक अपरा प्रकृति (जगत्) है, एक परा प्रकृति (जीव) है और एक
परा-अपराके मालिक परमात्मा हैं । सम्पूर्ण शरीर तथा संसार ‘अपरा’ के अन्तर्गत हैं
और सम्पूर्ण जीव ‘परा’ के अन्तर्गत हैं । सम्पूर्ण शरीर भी एक हैं । सम्पूर्ण जीव
भी एक हैं और परा तथा अपरा जिसकी शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा भी एक हैं‒‘एकमेवाद्वितीयम्’ (छान्दोग्य॰ ६/२/१) । अतः शरीरोंकी दृष्टिसे, जीवों (आत्मा)-की दृष्टिसे और परमात्माकी
दृष्टिसे‒तीनों ही दृष्टियोंसे हम एक हैं, अनेक नहीं हैं । परन्तु जब मनुष्य सबको
एक न मानकर अपने और परायेका भेद पैदा कर लेता है, तब उसके जीवनमें बुराई आ जाती है
। जैसे, कौरव और पाण्डव एक थे । परन्तु जब धृतराष्ट्रके मनमें ‘मामकाः’ (मेरे पुत्र) और ‘पाण्डवाः’
(पाण्डुके पुत्र)‒यह भेद पैदा हो गया, तब उसके जीवनमें बुराई आ गयी, जिसके
परिणाममें महाभारतका युद्ध हुआ । अतः बुराई-रहित होनेके
लिये साधकको दृढ़तापूर्वक इस सत्यको स्वीकार कर लेना चाहिये कि उपरसे अनेक भेद दीखते
हुए भी वास्तवमें हम एक हैं‒शरीरोंकी दृष्टिसे भी एक हैं, आत्माकी दृष्टिसे भी एक
हैं और परमात्माकी दृष्टिसे भी एक हैं । सम्पूर्ण शरीर पंचमहाभूतोंसे बने
हुए हैं, इसलिये एक हैं । सम्पूर्ण जीव परमात्माके अंश है, इसलिये एक हैं और
सम्पूर्ण मनुष्य अलग-अलग नाम-रूपोंसे जिनकी उपासना करते हैं, वे परमात्मा भी एक
हैं । असली भक्त वही हो सकता है, जो किसीको भी पराया
नहीं मानता, प्रत्युत सबको अपना मानता है और
सबकी सेवा करता है[*] । सेवा करनेके लिये सभी अपने हैं, पर अपने लिये
केवल परमात्मा ही हैं । हमारे
पास शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि आदि जो भी वस्तुएँ हैं, वे संसारकी हैं और संसारसे
ही मिली हैं । परन्तु अपने लिये वही वस्तु हो सकती है,
जो सदा हमारे साथ रहे । ऐसी वस्तु केवल परमात्मा ही हैं । असली
सेवा है‒किसीका भी बुरा न करना । जो कभी किसीका बुरा नहीं करता, उसके द्वारा विश्वमात्रकी सेवा होती है । कारण
कि किसीका भी बुरा न करनेसे उसका व्यक्तित्व मिट जाता है और उसका सम्बन्ध
सर्वव्यापी, असीम-अनन्त तत्त्वके साथ हो जाता है । जिसके द्वारा कभी किसीका बुरा
नहीं होता, वह खुद बुरा नहीं रह सकता, प्रत्युत भला हो जाता है । मनुष्य भलाई करनेसे भला नहीं होता, प्रत्युत बुराईका सर्वथा
त्याग करनेसे भला होता है । कारण कि भलाई करना सीमित होता है, पर किसीका बुरा न
करना असीम होता है । असीमसे असीम तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । इसलिये सबसे बड़ी सेवा
है‒बुराईका त्याग । जिसने बुराईका त्याग कर दिया है, वह सबसे बड़ा आदमी है ।
[*] आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि दुःखं स
योगी परमो मतः ॥ (गीता ६/३२) ‘हे अर्जुन ! जो भक्त अपने शरीरकी उपमासे जब
जगह मुझे समान देखता है और सुख अथवा दुःखको भी समान देखता है, वह परम योगी माना
गया है ।’ |