।। श्रीहरिः ।।

                                                                  


आजकी शुभ तिथि–
     ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.२०७८ शुक्रवार

          अनेकतामें एकता


बुराईका त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य किसीसे कुछ न चाहे, न संसारसे, न परमात्मासे । क्यों न चाहे ? क्योंकि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केश-जितनी भी वस्तु अपनी नहीं है । जप, तप, तीर्थ, व्रत आदि करनेसे कामनाका नाश नहीं होता । कामनाका नाश तब होता है, जब मनुष्य इस सत्यको स्वीकार कर लेता है कि संसारकी कोई भी वस्तु मेरी नहीं है । जो वस्तु मेरी नहीं होती, वह मेरे लिये भी नहीं होती । जिसपर हमारा स्वतन्त्र अधिकार नहीं चलता, जो सदा हमारे साथ नहीं रह सकती, जिसकी प्राप्ति होनेसे हमारे अभावकी पूर्ति नहीं होती, वह वस्तु मेरी और मेरे लिये कैसे हो सकती है ?

सम्पूर्ण संसार एक है । उसमें जो अलग-अलग देशों और प्रान्तोंका बँटवारा दीखता है, वह मनुष्योंके द्वारा किया गया है । मनुष्य अपने स्वार्थके वशीभूत होकर एक ही संसारमें अनेक भेद पैदा कर लेता है । वास्तवमें सारी सृष्टि एक है और उसका रचियता परमात्मा भी एक है । जो संसारको जानता है और परमात्माको मानता है, वह मनुष्य भी एक है । वास्तवमें सृष्टि (अपरा) और जीव (परा)-की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । स्वतन्त्र सत्ता एक परमात्माकी ही है । जगत्‌को जीवने ही धारण किया है‒‘ययेदं धार्यते जगत्‌’ (गीता ७/५) अर्थात्‌ जगत्‌को सत्ता जीवने ही दी है, इसलिये जगत्‌की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जीव परमात्माका अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७), इसलिये खुद जीवकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । तात्पर्य है कि जगत्‌की सत्ता जीवके अधीन है और जीवकी सत्ता परमात्माके अधीन है । इसलिये एक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ नहीं है । जगत्‌ और जीव‒दोनों परमात्मामें ही भासित हो रहे हैं ।

संसारके साथ हमारा सम्बन्ध माना हुआ (बनावटी) है और परमात्माके साथ हमारा सम्बन्ध वास्तविक है । जिसके साथ माना हुआ सम्बन्ध है, उसकी सेवा करनी है और जिसके साथ हमारा वास्तविक सम्बन्ध है, उससे प्रेम करना है । न तो संसारसे कुछ चाहना है और न परमात्मासे ही कुछ चाहना है । सेवा और प्रेम साधकका स्वरूप है । जब साधक परमात्माको संसाररूपमें देखता है, तब वह सेवा करता है और जब परमात्माको परमात्मरूपमें देखता है, तब वह प्रेम करता है । परन्तु साधक सेवक तभी हो सकता है, जब वह इस सत्यको स्वीकार कर ले कि मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये । वह प्रेमी तभी हो सकता है, जब वह इस सत्यको स्वीकार कर ले कि केवल भगवान्‌ अपने हैं ।

यदि साधक विवेकपूर्वक विचार करे तो वह अपनेमें ही संसारको देखेगा और परमात्मामें ही अपनेको देखेगा । संसार तो प्रतिक्षण बदलता है, उत्पन्न और नष्ट होता है, पर परमात्मा कभी नहीं बदलते । जो बदलता है, उसकी सत्ता नहीं होती और जो नहीं बदलता, उसीकी सत्ता होती है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । जब साधक सर्वथा बुराई-रहित हो जाता है, तब उसकी दृष्टिमें एक परमात्माके सिवाय कुछ नहीं रहता । फिर उसकी परमात्मासे न तो दूरी रहती है, न भेद रहता है और न भिन्नता ही रहती है । इसीको गीताने ‘वासुदेवः सर्वम्’ (७/१९) पदोंसे कहा है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सब साधनोंका सार’ पुस्तकसे