(गत ब्लॉगसे आगेका)
एतस्माज्जायते प्राणो मन: सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥
(मुण्डक॰ २ । १ । ३)
‘इसी परमेश्वरसे प्राण, मन (अन्तःकरण), समस्त इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, जल और सम्पूर्ण प्राणियोंको धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ।’
उपनिषदोंमें आयी उपर्युक्त बातें सगुण परमात्माकी हैं, निर्गुण आत्माकी नहीं । गीतामें भी सगुण परमात्मासे ही सृष्टिकी उत्पत्ति आदि बतायी गयी है‒
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥
(९ । ७-८)
‘हे कुन्तीनन्दन ! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ । प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस प्राणिसमुदायको मैं (कल्पोंके आदिमें) अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचता हूँ ।’
मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
(१ । १०)
‘प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत्को रचती है ।’
अहं कृत्सस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥
(१७ । ६)
‘मैं सम्पूर्ण जगत्का प्रभव तथा प्रलय हूँ ।’
३. सबके शासक परमात्मा हैं
हम जिस संसारमें बैठे हैं, उसका शासक, स्वामी सगुण ईश्वर ही है । जैसे राज्यमें राजाकी मुख्यता होती है,ऐसे ही संसारमें सगुण ईश्वरकी मुख्यता है । जैसे प्रत्येक समुदायका एक शासक होता है, ऐसे ही सृष्टिका भी कोई शासक होना चाहिये । शासक निर्गुण-निराकार नहीं हो सकता, क्योंकि निर्गुण-निराकारमें कोई स्फुरणा पैदा होती ही नहीं । अत: शासक सगुण-साकार ही हो सकता है । उपनिषदोंमें भी परमात्माको सबका शासक, स्वामी बताया गया है‒
क्षर प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक: ।
(श्वेताश्वतर॰ १ । १०)
‘प्रकृति तो विनाशशील है और इसको भोगनेवाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है । इन दोनों (क्षर और अक्षर) को एक ईश्वर अपने शासनमें रखता है ।’
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ॥ (श्वेताश्वतर॰ ५ । १)
‘विनाशशील जड़वर्ग तो अविद्या नामसे कहा गया है और अविनाशी जीवात्मा विद्या नामसे कहा गया है । जो इन विद्या और अविद्या दोनोंपर शासन करता है, वह परमेश्वर इन दोनोंसे भिन्न‒सर्वथा विलक्षण है ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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