(गत ब्लॉगसे आगेका)
काला-कलूटा, कुरूप बालक हो, पर उसकी माँसे पूछो कि कैसा है ? क्या वह माँको भी बुरा लगता है ? इसी तरह जीव कैसे ही हैं, नरकोंमें हैं, स्वर्गमें हैं, वैकुण्ठमें हैं, पृथ्वीपर हैं, पर भगवान्के प्यारे हैं‒‘सब मय प्रिय’ । अत: मनमें ऐसा उत्साह आना चाहिये कि हम भगवान्के हैं; कैसी मौजकी बात है ! हम अविनाशी, चेतन, अमल और सहजसुखराशि हैं‒यह बात समझमें आये या न आये, पर इतना तो मान ही सकते हैं कि हम भगवान्के हैं । कितने आनन्दकी बात है !
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविण त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥
अपना बालक किसको बुरा लगता है ? अपनी माता किसको बुरी लगती है ? हमारी माता भी भगवान् हैं और पिता भी भगवान् हैं । यहाँ हमारा जन्म तो थोड़े वर्षोंसे ही हुआ है और थोड़े वर्ष ही रहनेवाला है । यह जो हाड़-मांसका शरीर है न, यह सब बिखर जायगा ! परन्तु हम भगवान्के हैं‒यह नहीं बिखरेगा । हम कहीं जायँ, किसी योनिमें जायँ;जहाँ जायँ, वहाँ भगवान्के ही रहेंगे । भगवान् कहते हैं कि मैं नरकोंमें भेजता हूँ अत: यदि हम नरकोंमें जायेंगे तो भगवान्के भेजे ही जायेंगे ! जो भगवान्को अपना और अपनेको भगवान्का मानता है, वह क्या नरकोमें जा सकता है ? जा ही नहीं सकता । अगर चला भी जाय तो क्या हर्ज है ? ठाकुरजीने भेजा है, हर्ज क्या है ! सेठजी (श्रीजयदयालजी गोयन्दका) ने कहा था कि मौका पड़े तो मैं नरकोंमें जाऊँ: क्योंकि यहाँ लोग सांसारिक सुखमें लगे हुए हैं, इसलिये अपनी (सत्संगकी) बात सुनते नहीं । नरकोंमें दुःखी-ही-दुःखी हैं, इसलिये वे अपनी बात ज्यादा सुनेंगे । अत: नरकोंमें जाकर सत्संग करायें तो बडा अच्छा है !
महाभारत, स्वर्गारोहणपर्वमें आता है कि जब देवदूत युधिष्ठिरको नरकोंके रास्तेपर ले गये, तब नारकीय जीव कहने लगे कि महाराज युधिष्ठिर ! आप ठहरो, आपकी हवा लगनेसे हमारेको शान्ति मिलती है । यह सुनकर युधिष्ठिरने कहा कि हम तो यहीं ठहरेंगे । जहाँ हड्डी, मांस, मल, मूत्र आदि बिखरा पडा है और महान् दुर्गन्ध आ रही है, ऐसी गन्दी जगह होनेपर भी वे कहते हैं कि हम तो यहीं ठहरेंगे; क्योंकि हमारे ठहरनेसे इनको सुख मिल रहा है ! तात्पर्य है कि जो अच्छे पुरुष होते हैं, वे अपना सुख नहीं देखते । अपना सुख तो पशु भी देखता है । सूअर, कुत्ता, ऊँट, गधा भी अपना सुख देखता है । वही अगर मनुष्य भी देखने लगे तो मनुष्य क्या हुआ ?
भगवान्ने मनुष्यको सेवा करनेका अधिकार दिया है । अत: तनसे, मनसे, वचनसे दूसरोंकी सेवा करो । अपने पासमें जो कुछ है, उसीसे सेवा करो । कोई पूछे तो रास्ता बता दो,प्यारसे उत्तर दे दो । जल पिला दो । हमें तो सबको सुख ही पहुँचाना है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे
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