(गत ब्लॉगसे आगेका)
संयोगकी
सत्ता मान रखी है—यही
गुत्थी है, यही चिज्जड-ग्रन्थि है, यही बन्धन है । जिसका
निरन्तर वियोग हो रहा है, उसके संयोगको सच्चा मान लिया—इसके ऊपर सभी अनर्थ हैं । वियोगरूपी
अग्निमें यह संयोग लकड़ीकी भाँति निरन्तर जल रहा है । तो संयोग सच्चा नहीं है, वियोग सच्चा है । इसलिये
अभी-अभी दृढ़तासे इस वियोगको स्वीकार कर लें तो इसी क्षण मुक्ति हो जाय, कल्याण हो
जाय । अब इसमें क्या जोर लगता है ? संयोगको मानना ही बन्धन है और वियोगका अनुभव
करना ही मुक्ति है । वियोगको स्वीकार कौन करे ? जो मरना नहीं चाहे, वह । पर अनुभव करनेकी गरज नहीं है; इसलिये देरी हो रही है । गरज इसलिये
नहीं है कि जीनेकी इच्छा है और उसमें है संयोगजन्य सुखभोग और संग्रहकी इच्छा, जो
खास बाधा है ।
इसमें भी एक बारीक बात है । मेरा निवेदन
है, आप ध्यान देकर सुनें । शरीर-संसारका प्रतिक्षण वियोग
हो रहा है—ऐसा
निश्चय करके बैठ जायँ । कुछ भी चिन्तन न करें । फिर चिन्तन हो जाय तो वह भी मिट
रहा है । मिटनेके प्रवाहका नाम ही चिन्तन है । मिटनेवालेके साथ हमारा सम्बन्ध है
ही नहीं । यह सब नित्य-निरन्तर मिट रहा है, और हम इसे जाननेवाले हैं, इससे अलग हैं
। ऐसे अपने स्वरूपको देखें । दिनमें पाँच-छः बार पन्द्रह-पन्द्रह मिनट ऐसा कर लें
। फिर इस बातको बिलकुल छोड़ दें । फिर याद करें ही नहीं । याद नहीं
करनेसे बात भीतर जम जायगी । इतनी विलक्षण बात है यह । इसे हरदम याद रखनेकी जरूरत
नहीं है । याद करो तो पूरी कर लो और छोड़ दो तो पूरी छोड़ दो, फिर याद करो ही नहीं ।
जैसे रोजाना काम करते हैं, वैसा-का-वैसा ही करते जायँ फिर बात एकदम दृढ़ हो जायगी । यह याद करनेकी चीज ही नहीं
है । यह तो केवल समझ लेनेकी, मान लेनेकी चीज है । जैसे यह बीकानेर
है—इसे क्या आप
याद किया करते हैं ? याद करनेसे तो और फँस जाओगे; क्योंकि याद करनेसे इसे सत्ता मिलती है । मिटानेसे सत्ता मिलती है । हम इसे मिटाना
चाहते हैं, तो इसकी सत्ता मानी तभी तो मिटाना चाहते हैं ! जब हम सत्ता मानते ही
नहीं, तो क्या मिटावें ? तो इसकी सत्ता ही स्वीकार न करें ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
—‘तात्विक
प्रवचन’ पुस्तकसे
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