आजकल गाँवोंमें भी मदिरा बहुत फैल गयी है ! छोटे-छोटे गाँवोंमें
भी मदिराकी दुकानें हो गयी हैं । मदिरा पीना महापाप है ।
मदिरा पीनेसे बुद्धि भ्रष्ट हो जायगी और महान् नरकोंकी प्राप्ति होगी । छोटे-छोटे
बच्चे भी मदिरा पीना सीख जायँगे ! इसलिये अपने-अपने गाँवोंमें और घरोंमें मदिरा मत
आने दो । गाँवके लोग इकट्ठे होकर निश्चय कर लें कि अपने गाँवमें मदिरा नहीं आनी चाहिये
। ऋषिकेशमें एक महात्माने बताया था कि मांस खानेकी अपेक्षा भी मदिरा पीनेका अधिक पाप
है । कारण कि अन्तःकरणमें पुण्यके, धर्मके जो अंकुर हैं,
उनको मदिरा जला देती है । मदिरा पीनेसे धार्मिक भाव नष्ट हो
जाते हैं । वे आदमी दान-पुण्य कर नहीं सकते,
सत्संगमें जा नहीं सकते । उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है ।
बुद्धिके नाशसे पतन-ही-पतन होता है‒‘बुद्धिनाशात्प्रणश्यति’ (गीता
२ । ६३) । इसलिये अपने गाँवमें
मदिराकी दूकान हो तो बन्द कर दो ।
सबसे बड़े परमात्मा हैं । परमात्माके समान भी कोई नहीं है,
फिर अधिक कैसे होगा
? उन परमात्माकी हम सब सन्तान
हैं‒‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । परन्तु मायाके
वशमें होकर दुःख पा रहे हैं‒‘सो मायाबस भयउ गोसाईं’ (मानस, उत्तर॰ ११७ । २) । अगर इस मायाको
छोड़ दें तो निहाल हो जायँ ! कारण कि जीवने खुद मायाको पकड़ा है,
मायाने उसको नहीं पकड़ा है । जीव मायामें इतना फँस गया कि माया
नष्ट हो जाय तो हार्टफेल हो जाय ! धन मेरा है,
सम्पत्ति मेरी है, घर मेरा है, जमीन मेरी है‒इस प्रकार वह अपनेको धन,
जमीन आदिका मालिक मानता है,
पर वास्तवमें होता है गुलाम ! अपनेको लखपति-करोड़पति कहता है,
पर होता है लखदास-करोड़दास ! इस गुलामीके कारण वह दुःखी हुआ है
। अगर यह गुलामी छोड़ दे तो माया तंग नहीं करेगी ।
अगर जीव मायाके वशमें न होकर हरदम परमात्माको ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारे तो यह सुगमतासे छूट जाता है । मायासे छूटनेपर माया भी
राजी हो जाती है और जीव भी राजी हो जाता है । मायाके दो काम हैं‒भोग देना और मोक्ष
देना । ये दोनों देकर माया कृतकृत्य हो जाती है‒‘ततः कृतार्थानां
परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम्’
(योगदर्शन ४ । ३२)
। मायाके पास दो ही चीजें हैं‒भोग और मोक्ष । अगर भोग लेते हो
तो लेते ही रहो.....लेते ही रहो.....युगों-युगोंतक लेते रहो ! अगर मोक्ष ले लो तो माया
निहाल हो जायगी कि मेरा पिण्ड छूट गया ! जो मायाको छोड़ देते
हैं, माया उनकी सेवा करती है !
भगवान्को ‘हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो तो भगवान् छुड़ा देंगे;
परन्तु भीतरसे छोड़ना चाहे,
तब । कोरा ऊपरसे भगवान्को पुकारे, पर
भीतरसे भोगोंको चाहे तो भगवान् छुड़ाते नहीं; क्योंकि
किसीकी मनचाही चीजको छुड़ाना भले आदमीका काम नहीं है । वह भोगोंको आफत समझे तो भगवान् छुड़ा दें,
पर सुख समझे तो कैसे छुड़ाये
? भले आदमी दूसरेका सुख नहीं
छुड़ाते, प्रत्युत दुःख, आफत छुड़ाते हैं । आरम्भमें तो भोगोंमें सुख दीखता है,
पर परिणाम बड़ा दुःखदायी होता है ।
|