भगवद्गीतासे, शास्त्रोंसे और सन्तोंसे मुझे बहुत विलक्षण-विलक्षण बातें मिली हैं । उनमेंसे एक बात आज मैं कहता हूँ । आपलोग कृपा करके ध्यान दें । एक ऐसी सरल बात है, जिससे साधनामें बहुत तेजीसे उन्नति हो सकती है, बड़ा विलक्षण आनंद प्राप्त हो सकता है, सदाके लिये दुःख-सन्ताप मिट सकता है । परन्तु वह सरल बात किसके लिये है ? जो अपना उद्धार चाहता है । मेरा कल्याण हो—यह भाव जितना ही अधिक होगा, उसके लिये यह बात उतनी ही सरल होगी ।
हम साधन करते-करते ऊँची स्थितिपर पहुंचते हैं, फिर हमें उस तत्त्वका अनुभव होता है—ऐसा एक प्रकार है । एक प्रकार ऐसा भी है कि साधन करते-करते हम जहाँ पहुँचते हैं, वहाँ हम पहलेसे ही जा बैठें तो उतना लंबा समय नहीं लगेगा, उतना परिश्रम नहीं पड़ेगा तथा लाभ बहुत जल्दी और विशेष होगा । इस विषयमें भगवान् ने कहा है कि ‘निश्चयवाली बुद्धि एक होती है और अव्यवसायी मनुष्योंकी बुद्धियाँ बहुशाखाओंवाली तथा अनन्त होती है’ (गीता २/४१) । ‘दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी यदि अनन्यभावसे मेरे भजनमें लग जाता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय बहुत अच्छा किया है’ (गीता ९/३०) । इस श्लोकमें आये हुए ‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ पदक तात्पर्य भी यही है कि ‘अब हमें परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है, हमें इस मार्गपर ही चलना है’—ऐसा अटल निश्चय हो जाय । लोग निंदा करें या स्तुति करें, धन आ जाय या चला जाय, शरीर ठीक रहे या बीमार हो जाय, हम जीते रहें या मर जायँ, पर हम इस निश्चय पर अडिग रहेंगे । इस तरह ‘मैं’-पनमें यह भाव कर लिया जाय कि ‘मैं तो केवल पारमार्थिक साधक हूँ’ तो फिर साधन अपने-आप होगा ।
आरम्भमें भी हम अपना सम्बन्ध परमात्मासे मान लें कि ‘हम भगवान् के हैं और भगवान् हमारे हैं’ । यह बात बहुत बार आपने सुनी होगी और बहुत बार मैंने कही भी है, पर आपलोग ध्यान नहीं देते । मैं आज आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप इस बात पर विशेष ध्यान दें । मुझे तो अपना कल्याण करना है; क्योंकि मैं केवल परमात्मप्राप्तिके लिये हि यहाँ आया हूँ; जन्मा हूँ, दूसरा और कोई मेरा काम नहीं है—ऐसा आपका एक निर्णय हो जाय । इसीको व्यवसायात्मिका बुद्धि कहते हैं । ऐसी बुद्धिसे पापी-से-पापी मनुष्य भी बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है ‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’ (गीता ९/३१) ।
एक भूल-भुलैया होती है । उसके भीतर जानेपर फिर बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है । इसी तरह संसारमें ये जो राग-द्वेष हैं, वे भी भूल-भुलैया हैं । यह ठीक है, यह बेठीक है—इसमें मनुष्य ऐसा भूलता है कि इससे निकलना बड़ा मुश्किल हो जाता है । अतः इससे निकलनेके लिये आप एक ही निर्णय कर लें कि ‘हमें केवल परमात्माकी तरफ ही चलना है । हमें संसारमें न राग करना है, न द्वेष करना है; न हर्षित होना है, न शोक करना है ।’ ऐसा जिसका पक्का निश्चय होता है,वह द्वन्द्वोंमें नहीं फँसता और सुखपूर्वक मुक्त हो जाता है—‘निर्द्वन्दो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५/३) । समताका नाम ‘योग’ है—‘समत्वंयोग उच्यते’ (गीता २/४८) । अतः राग-द्वेष, हर्ष-शोक, ठीक-बेठीक—इन द्वन्दोंमें विचलित न होना ‘योग’ है और इस योगसे युक्त मनुष्य बहुत जल्दी ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है—‘योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति’ (गीता ५/६) । इस प्रकार सुखपूर्वक और बहुत जल्दी—दोनों बातें आ गयीं । परन्तु यह बात पढ़ लेनेपर, पढ़ा देनेपर, विवेचन कर देनेपर, लोगोंको सुना देनेपर भी जल्दी पकडमें नहीं आती । इस बातको काममें कैसे लाया जाय—इसकी विधि बताता हूँ । नीतिमें एक श्लोक आया है—
अमन्त्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ॥
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः ॥
‘संसारमें ऐसा कोई अक्षर नहीं है जो मन्त्र न हो; ऐसी कोई जड़ी-बूटी नहीं है, जो औषधि न हो; और ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो योग्य न हो, परन्तु इस अक्षरका ऐसा उच्चारण किया जाय तो यह अमुक काम करेगा, इस जड़ी-बूटीको इस प्रकार दिया जाय तो अमुक रोग दूर हो जायगा, यह मनुष्य इस प्रकार करे तो बहुत जल्दी इसकी उन्नति हो जायगी—इस प्रकार बतानेवाले पुरुष संसारमें दुर्लभ हैं ।’
किस बातको किस रीतिसे काममें लाया जाय, जिससे सुखपूर्वक मुक्ति हो जाय—इसमें आपको यह खास बात बतायी है कि अपना खुदका विचार, निश्चय एक हो जाय कि हमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है । परमात्माकी प्राप्ति भी करनी है—इसमें ‘भी’ की जगह ‘ही’ हो जाय और ‘ही’ पर दृढ़ रहें कि हमें तो केवल इस तरफ ही चलना है । दुःख पायें, सुख पायें, कुछ भी हो जाय, हमें तो अपना उद्धार करना है— ऐसा पक्का विचार करके चलें तो बहुत सुगमतासे बहुत जल्दी कल्याण हो जाय । इसमें खुदका विचार ही काम आयेगा—
किस बातको किस रीतिसे काममें लाया जाय, जिससे सुखपूर्वक मुक्ति हो जाय—इसमें आपको यह खास बात बतायी है कि अपना खुदका विचार, निश्चय एक हो जाय कि हमें तो परमात्माकी प्राप्ति ही करनी है । परमात्माकी प्राप्ति भी करनी है—इसमें ‘भी’ की जगह ‘ही’ हो जाय और ‘ही’ पर दृढ़ रहें कि हमें तो केवल इस तरफ ही चलना है । दुःख पायें, सुख पायें, कुछ भी हो जाय, हमें तो अपना उद्धार करना है— ऐसा पक्का विचार करके चलें तो बहुत सुगमतासे बहुत जल्दी कल्याण हो जाय । इसमें खुदका विचार ही काम आयेगा—
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
(गीता ६/५)
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
(गीता ६/५)
‘स्वयं अपना उद्धार करे,अपना पतन न करे; क्योंकि यह आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।’
‘बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।’
(गीता ६/६)
(गीता ६/६)
—जिसने अपनेसे अपनेपर विजय कर ली है, उसके लिये यह आप ही अपना मित्र है । अपनेसे अपनेपर विजय करना क्या है कि हम समताको धारण कर लें । मेरेको अपना कल्याण करना है—यह विचार पक्का हो जाय तो समता अपने-आप आ जायगी ।
आप और हम विचार करें कि हमारे सामने अनुकूलता-प्रतिकूलता कई बार आयी है और गयी है । हमने सुख भी भोग है और दुःख भी भोग है । परन्तु हमें शान्ति तो नहीं मिली ! वहम होता है कि ऐसा गुरु मिल जाय तो कल्याण हो जाय; ऐसा परिवार मिल जाय तो कल्याण हो जाय; ऐसी स्त्री मिल जाय तो बड़ा ठीक रहे; ऐसा मित्र मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ; इतना धन मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ; ऊँचा पद मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ, आदि-आदि । इसमें आप विचार करें कि अनुकूल स्त्री किसीको नहीं मिली है क्या ? अनुकूल पुत्र किसीको नहीं मिला है क्या ? अनुकूल परिस्थिति किसीको नहीं मिली है क्या ? परन्तु क्या वे इच्छाओंसे रहित होकर परमात्माको प्राप्त हो गये ? विचार करनेसे दीखता है कि जिसको ये सब अनुकूलताएँ मिली हैं, उसकी इच्छाएँ नहीं मिटी हैं । वह कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य नहीं हुआ है । अतः कोई भी इन परिस्थितियोंसे निहाल हो जाय—यह असम्भव बात है । कारण कि स्वयं बदलनेवाले नहीं हो । बदलनेवाली परिस्थितियोंसे आप ऊँचे कैसे हो जाओगे ? हो ही नहीं सकती । असम्भव बात है । मैंने इस विषयमें खुब अध्ययन किया है । आप परमात्मप्राप्तिका ही एक निश्चय कर लो, फिर अनुकूलता आपके पीछे दौड़ेगी ।
आप और हम विचार करें कि हमारे सामने अनुकूलता-प्रतिकूलता कई बार आयी है और गयी है । हमने सुख भी भोग है और दुःख भी भोग है । परन्तु हमें शान्ति तो नहीं मिली ! वहम होता है कि ऐसा गुरु मिल जाय तो कल्याण हो जाय; ऐसा परिवार मिल जाय तो कल्याण हो जाय; ऐसी स्त्री मिल जाय तो बड़ा ठीक रहे; ऐसा मित्र मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ; इतना धन मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ; ऊँचा पद मिल जाय तो हम निहाल हो जायँ, आदि-आदि । इसमें आप विचार करें कि अनुकूल स्त्री किसीको नहीं मिली है क्या ? अनुकूल पुत्र किसीको नहीं मिला है क्या ? अनुकूल परिस्थिति किसीको नहीं मिली है क्या ? परन्तु क्या वे इच्छाओंसे रहित होकर परमात्माको प्राप्त हो गये ? विचार करनेसे दीखता है कि जिसको ये सब अनुकूलताएँ मिली हैं, उसकी इच्छाएँ नहीं मिटी हैं । वह कृतकृत्य, ज्ञात-ज्ञातव्य और प्राप्त-प्राप्तव्य नहीं हुआ है । अतः कोई भी इन परिस्थितियोंसे निहाल हो जाय—यह असम्भव बात है । कारण कि स्वयं बदलनेवाले नहीं हो । बदलनेवाली परिस्थितियोंसे आप ऊँचे कैसे हो जाओगे ? हो ही नहीं सकती । असम्भव बात है । मैंने इस विषयमें खुब अध्ययन किया है । आप परमात्मप्राप्तिका ही एक निश्चय कर लो, फिर अनुकूलता आपके पीछे दौड़ेगी ।
नाम नाम बिनु न रहे, सुनो सयाने लोय ।
मीरा सुत जायो नहीं, शिष्य न मुंड्यो कोय ॥
मीरा सुत जायो नहीं, शिष्य न मुंड्यो कोय ॥
मीराबाईका नाम आज भी कितने आदरसे लिया जाता है ! उनका नाम लेनेसे, उनके पद गानेसे लोग अपनेमें पवित्रताका अनुभव करते हैं । उनमें क्या बात थी ? ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई । जाके सिर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई ॥’ एक ही निश्चय था कि मेरा पति वही है । क्या होगा, क्या नहीं होगा—इस बातकी कोई परवाह नहीं ! अहंता बदलनेपर, एक निश्चय होनेपर राग-द्वेष कुछ नहीं कर सकते । इनमें ताकत नहीं है अटकानेकी । केवल हमारा विचार पक्का होना चाहिये ।
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे, (सर्वोपयोगी, लेख नं.९१,पेज नं.७२९—७३१)
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/sarwopyogi/sarw91_729.htm
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे, (सर्वोपयोगी, लेख नं.९१,पेज नं.७२९—७३१)
http://www.swamiramsukhdasji.org/swamijibooks/pustak/pustak1/html/sadhansudhasindhu/sarwopyogi/sarw91_729.htm