।। श्रीहरिः ।।
भगवान्‌से
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नित्ययोग-३
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(गत् ब्लॉगसे आगेका)
यह सबका अनुभव है कि ‘मैं वही हूँ’, जो बचपनमें था । अवस्था बदल गयी, समय बदल गया, संयोग बदल गया, साथी बदल गये, भाव बदल गये; परन्तु आप बदले हो क्या ? आप नहीं बदले । ऐसे ही सब संसार बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते । हम उस परमात्माके अंश हैं, संसारके अंश नहीं हैं । संसारके अंश शरीरको तो हमने (‘मैं’ और ‘मेरा’ मानकर) पकड़ा है । वास्तवमें वह हमारा नहीं है, प्रत्युत संसारका है ।

‘हूँ’ तो ‘है’ से कमजोर ही है । कारण कि ‘हूँ’ शरीरको लेकर (एकदेशीय) है और शरीर कमजोर है ही । शरीर तो नहीं रहेगा, पर ‘है’ तो रहेगा ही । ‘है’ (परमात्मा) समुद्र है और ‘हूँ’ उसकी तरंग है । तरंग शान्त होनेपर भी समुद्र तो रहता ही है । अतः हमारा स्वरूप ‘है’ से अभिन्न है—इस बातको आप मान लो । समझमें न आये, तो भी मान लो । इतनी बात मान लो कि मैं उसका हूँ । ऐसा मानकर जप करो, कीर्तन करो, स्वाध्याय करो, सत्संग करो । ‘हूँ’ का ‘है’ ही है ।

‘हूँ’ बदलता है और ‘है’ नहीं बदलता—यही मैं कहना चाहता हूँ । यह सार बात है । सनकादि ऋषियोंका भी यही ज्ञान है । ब्रह्मा आदिका भी यही ज्ञान है । व्यासजी महाराजका भी यही ज्ञान है । शुकदेवजीका भी यही ज्ञान है । जितने सन्त-महात्मा हुए हैं, उनका भी यही ज्ञान है । इस ज्ञानसे आगे कुछ है ही नहीं । कैवल्य ज्ञान भी इसके सिवाय और कुछ नहीं है । किसी मत-मतान्तरमें इससे बढ़कर कोई चीज है नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । इतनी सरल और इतनी ऊँची बात है । इसको हरेक भाई-बहन, साधारण पढ़ा-लिखा भी समझ सकता है, इतनी सीधी बात है ! इससे बड़ी बात आपको कहीं भी नहीं मिलेगी । ऐसा इसलिये कहता हूँ कि आप इसका आदर करें, इसको महत्त्व दें कि ऐसी ऊँची बात आज मिल गयी ! उपनिषदोंमें आता है कि बहुत-से आदमियोंको तो ऐसी बात सुननेको भी नहीं मिलती—‘श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः’ (कठोपनिषद १/२७) । उम्र बीत जाती है और सुननेको नहीं मिलती ।

अब आपको एक और बात बताऊँ कि अभी आपकी जैसी मान्यता है, ऐसी मान्यता आगे न रहे तो कोई बात नहीं आप घबराना नहीं कि हमें यह बात हरदम याद नहीं रहती । आपको अपना नाम हरदम याद रहता है क्या ? हरदम याद न रहनेपर भी जब देखो, तब दीखता है कि मैं अमुक नामवाला हूँ । इसी तरह यह बात हरदम भले ही याद न रहे, पर विचार करते ही यह चट याद आ जायगी कि बात तो ऐसी ही है । इससे सिद्ध होता है कि यह बात मिटी नहीं है, इसकी भूली नहीं हुई है । इसकी भूली तब मानी जाय, जब आप इस बातको रद्दी कर दो, यह कहो कि मैं इस नामवाला नहीं हूँ । अतः बीचमें यह बात याद न आनेपर भी इसकी भूली नहीं हुई है, नहीं हुई है, नहीं हुई है । इस बातको रद्दी करो तो बात दूसरी है, नहीं तो आठ पहरमें एक बार भी याद नहीं आये, तो भी बात ज्यों-की-त्यों ही रहेगी । ‘है’ कैसे मिट जायगा ? इतनी ऊँची, इतनी बढ़िया, इतनी पक्की बात है ! मान लो तो बेड़ा पार है ।


नारायण ! नारायण ! नारायण !


—‘कल्याणकारी प्रवचन’ पुस्तकसे
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