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(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
इसमें बाधा
यह है कि हम
जिन
पदार्थोंको
नाशवान् मानते
हैं, उनको
अपना मान
लेते हैं । यह
गलती है । इस
गलतीको
मिटानेमें
जोर पड़ता है ।
परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति तो
सुगम है, पर संसारका
त्याग
करनेमें जोर
पड़ता है । जिनको
हम नाशवान्
जानते हैं,
उनका ही
संग्रह करते
हैं । उनसे ही
सुख लेते हैं‒यह
जो हमारी चाल
है न, यह चाल
खतरनाक है ।
यह चाल बदलनी
चाहिये । चालमें
भी केवल
भीतरका भाव
बदलना है कि
औरोंको सुख
कैसे हो ? यह
भले ही घरसे
शुरू कर दो कि
माता, पिता,
स्त्री,
पुत्र,
परिवारको
सुख कैसे हो ?
पर साथ-साथ
उनसे सुख
लेनेकी आशा
छोड़ दो । जिससे
सुख मिलनेकी
आशा नहीं है,
उसको सुख
नहीं
पहुँचाते और
जिसको सुख
पहुँचाते
हैं उससे सुख
लेनेकी आशा
रहती है‒यह
है खास बन्धन ।
इसलिये
सुखकी आशा न
रखकर
दूसरोंको
सुख देना है,
दूसरोंको
आराम देना है,
दूसरोंकी
बात रखनी है ।
अपनी बात
रखोगे तो बड़ी
भारी आफत हो
जायगी । मेरी
बात रहे‒इसीमें
बन्धन है ।
हम
जो नाशवान्
पदार्थोंसे
राजी होते
हैं; जानते
हैं कि ये
रहेंगे नहीं,
टिकेंगे
नहीं, फिर भी
उसमें रस
लेते हैं,
यहींसे
बन्धन होता
है ।
श्रोता‒महाराजजी
! हमारी तो आदत
ही ऐसी पड़ गयी
सुख लेनेकी !
स्वामीजी‒भैया
! आदत छोड़नेके
लिये ही तो हम
यहाँ इकठ्ठे हुए
हैं । यहाँ
कौन-से पैसे
मिलते हैं ! आदत
सुधारनेके
समान कोई
उन्नति है ही
नहीं ।
अपने
स्वभावको
शुद्ध बना
लेनेके समान
आपका कोई
पुरुषार्थ
नहीं है ।
इसके समान
कोई लाभ नहीं
है । आपका
पुरुषार्थ,
उद्योग, प्रयत्न
इसीमें होना
चाहिये कि
स्वभाव सुधरे
। स्वभाव ही
सुधरता है और
क्या सुधरता
है बताओ ? जो
सन्त-महात्मा
होते हैं,
उनका भी स्वभाव
ही सुधरता है ।
शरीरमें फरक
नहीं पड़ता,
स्वभावमें
फरक पड़ता है ।
इसलिये अपनी
आदत है, अपना
स्वभाव है,
अपनी प्रकृति
है, इसको हमें
शुद्ध करना
है । इसमें
जो-जो
अशुद्धि आये,
उसको
निकालना है । यह
एक ही खास काम
करना है ।
यह याद कर
लो कि अपना
स्वभाव
सुधारनेमें
हम
स्वतन्त्र
हैं, पराधीन
नहीं हैं ।
इसको दूसरा
कोई कर देगा‒यह
बात नहीं है ।
यह तो आप ही
करोगे, तब
होगा । जब कभी
करोगे तो
आपको ही करना
पड़ेगा । आपने
प्रश्न किया
था कि यह
गुरु-कृपासे होगा
या सन्त-कृपासे
होगा, तो इस
विषयमें
आपको एक
मार्मिक बात
बताता हूँ ।
अगर
गुरु-कृपासे
होगा तो
गुरुको आप
मानोगे, तब
होगा । अगर
सन्त-कृपासे
होगा तो
सन्तको आप
मानोगे, तब
होगा । अन्तमें
बात आपके ऊपर
ही आयेगी । आप
मानोगे तब
होगा ।
ईश्वरकी
कृपा तो
सदासे है, पर
आप मानोगे, तब वह
काम करेगी ।
इसलिये
गीतामें कहा
गया है कि
अपने-आपसे
अपना उद्धार
करे‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’
(६/५) । आपके
माने बिना
गुरु क्या
करेगा ? हम
गुरु मानेंगे,
सन्त-महात्मा
मानेंगे, तभी
वे कृपा करेंगे
।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘स्वाधीन
कैसे बनें ?’ पुस्तकसे
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